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है । इस प्रकार आतुर चिंतायुक्त दूसरा प्रकार भी चित्त के तनावयुक्त होने का ही सूचक है।
तनाव का मुख्य कारण राग है और राग में आसक्त व्यक्ति को इष्ट विषय की प्राप्ति होने पर उसका वियोग न हो जाए, ऐसा चिंतन आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार इष्ट-वियोग रूप आर्त्तध्यान है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने पर अथवा उसे जीवन में अनुकूल अनुभव होने पर उसका वियोग न हो जाए, इसकी चिन्ता में तनावग्रस्त बन रहा है। इसी प्रकार अनुकूल के संयोग को चिरकाल तक बनाए रखने की अभिलाषा के कारण उसका चित्त विचलित या तनावग्रस्त रहता है। प्रिय वस्तु के वियोग की सम्भावना का मात्र चिंतन करने से ही उसके मन में विक्षोभ उत्पन्न हो जाता है। यह विक्षोभ तनाव का ही एक लक्षण है। इस प्रकार इष्ट वियोग की चिन्ता एवं इष्ट संयोग की चाह • दोनों ही आर्त्तध्यान या तनाव को ही जन्म देती है ।
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आर्त्तध्यान का चौथा रूप निदान चिन्तन है । "पाँचों इन्द्रियों से सम्बन्धित कामभोगों इच्छा करना, भोगेच्छा चिन्तन रूप आर्त्तध्यान है । "120 इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त और जीवन में निरन्तर बनी रहती हैं। उन्हें पूरा करने की चिंता ये में पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है, फिर भी इच्छाएँ समाप्त नहीं होती हैं। इच्छाएँ या आकांक्षाएँ ही व्यक्ति के मन में एक द्वन्द्व उत्पन्न करती हैं । व्यक्ति दिन-रात इच्छाओं के पीछे भागता रहता है। व्यक्ति क्षणभर भी संतोष का अनुभव नहीं कर पाता है । भविष्य में इच्छाओं को पूर्ण करने की लालसा में व्यक्ति मन के माध्यम से प्रयासरत रहता है। इस हेतु अपनी क्षमता से अधिक कार्य करना भी तनाव उत्पन्न करता है, फिर चाहे वह कार्य शारीरिक हो या मानसिक ।
इस प्रकार उपरोक्त चारों आर्त्तध्यान तनाव को उत्पन्न करते हैं। कभी व्यक्ति अनिष्ट के संयोग से दुःखी होता है, तो कभी इष्ट के वियोग की चिंता में
20 (1) ध्यानशतक – 9
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