________________
245
आर्त्तध्यान हताशा की स्थिति है, रौद्रध्यान आवेगात्मक स्थिति है। प्रथम में मन निराशा में डूब जाता है, चिन्तित व दुःखी होता है। निराशा, चिंता, दुःखी होना ये सब तनाव के ही प्रकार कहे जा सकते हैं, क्योंकि इन्हीं से मन अशांत होता है। स्थानांग में भी दुःख के निमित्त को या दुःख रूप मनोदशा या परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र लिखते हैं कि –'ऋते भवम् आर्त्तम्' इस निरूक्ति के अनुसार दुःख में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम आर्तध्यान है।15
इसी प्रकार राग भाव से जो उन्मत्तता होती है, वह केवल अज्ञान के कारण ही होती है, जिसके फलस्वरूप जीव उस अवांछनीय वस्तु की प्राप्ति से
और वांछनीय की अप्राप्ति से दुःखी होता है, यही आर्तध्यान है।16 रौद्रध्यान को तनाव की अंतिम सीमा भी कह सकते हैं। क्रूर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रूद्र कहा जाता है और उस रूद्र प्राणी के द्वारा जिस भाव से कार्य किया जाता है, उसके भाव को रौद्र कहते हैं। इस प्रकार अतिशय क्रूर भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान है।'' जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रूद्र व क्रूर कहलाता है और उस पुरुष के द्वारा जो ध्यान किया जाता है, वह रौद्रध्यान कहलाता है।118
रौद्रध्यान में व्यक्ति स्वयं के स्वभाव को छोड़कर 'पर' में द्वेष प्रवृत्ति करता है। 'पर' पर राग व द्वेष दोनों ही तनाव के हेतु हैं। आर्तध्यान के चार भेद किए गए हैं119 -
1. अनिष्ट संयोग रूप आर्तध्यान
114 स्थानांगसूत्र - 247 II ज्ञानार्णव - 25/23 116 दशवैकालिक " (1) ज्ञानार्णव -26/2 (2) सर्वार्थसिद्धि-9/28/445/10 18 (1) महापुराण -21/42 (2) भगवती आराधना, मूल-1703/1528 (3) मूलाचार-396 19 (1) ध्यानशतक -श्लोक 6, 7, 8, 9, (2) स्थानांगसूत्र - 4/60-72
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org