SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 161 2. नील लेश्या - इस लेश्या वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व पहले प्रकार की अपेक्षा कुछ ठीक तो होता है, किन्तु उसकी वृत्ति अशुभ व अशुद्ध ही होती है। ऐसा व्यक्ति भी अन्तर से तो दुर्भावनाग्रस्त ही होता है, परन्तु वह उसे बाहर प्रकट करने में संकोच करता है। इस व्यक्ति में वे सब दुर्गुण होते हैं जो कृष्ण लेश्या वाले व्यक्ति में होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि जो ईष्यालु हैं, असहिष्णु हैं, अतपस्वी हैं, अज्ञानी हैं, मायावी हैं, निर्लज्ज हैं, विषयासक्त हैं; धूर्त हैं, प्रमादी हैं, रसलोलुप हैं, जो आरम्भ में अविरत हैं, क्षुद्र हैं, दुःसाहसी है, इन दुर्गुणों से युक्त मनुष्य नील लेश्या वाला होता है।114 कृष्ण लेश्या और नील लेश्या में अन्तर मात्र इतना है कि कृष्ण लेश्या वाले की अभिव्यक्ति अति तीव्र होती है, और नील लेश्या वाले की तीव्रतम होती है। नील लेश्या वाला व्यक्ति अपनी स्वार्थ वृत्ति की पूर्ति के लिए दूसरों का अहित अप्रत्यक्ष रूप से करता है। छल, कपट, मायाचार से अपनी वासनाओं की पूर्ति करता है। ऐसे व्यक्ति में भय की प्रवृत्ति होती है कि कहीं कोई मुझे बुरा व्यक्ति न समझ ले। वह सदैव अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता है। दूसरे का हित भी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में इसका निम्न उदाहरण प्रस्तुत किया गया है –“जैसे बकरा पालने वाला बकरे को इसलिए नहीं खिलाता कि उससे बकरे का हित होगा, वरन् इसलिए खिलाता है कि उसे मारने पर अधिक मांस मिलेगा। 115 ऐसा व्यक्ति अपने दुष्प्रवृत्तियो के कारण तनावग्रस्त ही रहता है। उसकी सोच सदैव यह रहती है कि स्वार्थ पूर्ति हेतु किस प्रकार से मायाचार करूं । अपने स्वार्थों की पूर्ति होने पर भी ऐसे व्यक्ति को कभी संतुष्टि नहीं होती है, क्योंकि वह सदैव ऐन्द्रिक विषयभोगों में आसक्त बना रहता है। स्वयं तो अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के कारण तनावग्रस्त रहता ही है, और मायाचार से 11 उत्तराध्ययनसूत्र, 34/23-24 ॥ जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy