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है।95 भविष्य में इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति की अभिलाषा का अतिरेक ही इच्छा है। जब सुखद अनुभूति को पुनः-पुनः प्राप्त करने की यह लालसा या इच्छा तीव्र हो जाती है तो वह गाढ़ राग का रूप ले लेती है। ये राग नियमतः तनाव का हेतु है।
प्रत्येक व्यक्ति सुख प्राप्त करना चाहता है और दुःखद अनुभूतियों से बचना चाहता है। जब उसकी यह चाहत पूरी होती है, तब वह स्वयं में तनावमुक्त एवं शांति का अनुभव करता है, किन्तु उसकी यह तनावमुक्त अवस्था चिरकाल तक नहीं रहती है, क्योंकि व्यक्ति की एक इच्छा पूरी होते ही, कुछ ही समय में दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। दूसरी इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि तीसरी इच्छा अपनी जगह बना लेती है। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है, क्योंकि इच्छाओं का कोई पार नहीं है। वे आकाश के समान अनन्त हैं।96 जब कोई एक इच्छा पूरी नहीं होती तो मन दुःखी होता है और उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए कई प्रकार के संकल्प-विकल्प करने लगता है। इसी को तनावयुक्त अवस्था कहते हैं। एक इच्छा पूर्ण हो जाए तो भी दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है, या फिर जिस कामना के पूरी होने से जो अनुभूति हुई है, उसे पुनः-पुनः प्राप्त करने की इच्छा होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी वस्तु या व्यक्ति को प्राप्त करने की इच्छा पूर्ण होने पर व्यक्ति सुखद अनुभव करता है, किंतु कुछ ही क्षण बाद उसके नष्ट होने का या वियोग होने का भय सताने लगता है और यह भय भी तनाव उत्पत्ति का एक रूप ही है।
अतः तनावमुक्ति के लिए इच्छा-निरोध आवश्यक है। भगवान् महावीर ने भी कहा है कि - "छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं । 7 अर्थात् इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त होता है और मोक्ष तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति की
95 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-2, पृ. 575 % इच्छा हु आगाससमा अणंतिया। - उत्तराध्ययनसूत्र –9/48 " उत्तराध्ययनसूत्र - 4/8
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