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अवस्था की ओर अग्रसर होने का सहज स्वभाव है। तनावमुक्त होना अथवा तनावग्रस्त होना, दोनों ही व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य जीवन ही वह विशेष स्थिति है, जहाँ से जीव आत्मोन्नति कर मोक्ष अर्थात् तनावमुक्त दशा प्राप्त कर सकता है अथवा आत्म-अवनति की ओर अग्रसर हो नारकीय जीवन जीने के लिए विवश हो सकता है।
मनुष्य में आत्मोन्नति की उत्कृष्ट संभावना निहित है, फिर भी हम देखते हैं कि व्यक्ति दुःखी है, तनावयुक्त है। विश्व का प्रत्येक प्राणी सुखी होना चाहता है, उसके सभी प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिए ही होते हैं, किन्तु सुख प्राप्ति के सम्यक् मार्ग से अनजान होने के कारण उसके प्रयत्न सम्यक् दिशा नहीं होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह तनावग्रस्त हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार व्यक्ति में तनाव का कारण यही है कि वह सम्यक् सोच को छोड़, राग-द्वेष को ही तनावमुक्ति का मार्ग समझ लेता है। वस्तुतः तनाव का मुख्य कारण राग-द्वेष ही हैं बन्धन के दो प्रकार हैं – प्रेम (राग) का बन्धन और द्वेष का बंधन, जो निषेध रूप होता है। राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख हैं। 24 देवताओं सहित समग्र संसार में जो भी दुःख (तनाव) हैं, वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं।25 कामासक्ति को हम राग कह सकते हैं। मन एवं इन्द्रियों के विषय, रागी आत्मा को ही दुःख के हेतु होते हैं।26
___कामभोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और न विकृति के ही, किन्तु जो उनमें द्वेष या राग करता है, वह उनमें मोह से
1 दुविहे बंधे -पेज्जबंधे चे दोसबंधे चेव। - स्थानांगसूत्र – 2/4 " उत्तराध्ययनसूत्र - 32/7 - उत्तराध्ययनसूत्र - 32/19 26 वही - 32/100
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