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________________ ____103 अन्तरात्मा ही तनावमुक्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। जो आत्मा शरीरादि बाह्य पदार्थों में आसक्त नहीं होती है अथवा संसार में रहते हुए भी अलिप्त भाव से रहती है वही अन्तरात्मा होती है। ऐसी ही आत्मा तनाव के कारणों को समझकर तनावमुक्ति का अनुभव करने लगता है। उसे इस बात का अनुभव होने लगता है कि बहिरात्मा या बहिरात्म भाव होने के कारण ही वह तनाव में है, तब वह तनावों से मुक्ति पाने का प्रयत्न करने लगता है। जैनदर्शन की भाषा में कहें तो आत्मा की इस दूसरी अवस्था में व्यक्ति साधक बन जाता है और साधना के द्वारा परमात्मा अर्थात् पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इस अवस्था में साधक सम्यग्दृष्टि होता है। वह 'स्व' तथा 'पर' के भेद को जानता है। वह सत्यता को समझता है व उसके अनुरूप ही अपना आचरण करता है अर्थात् पर पदार्थों पर रागादि भाव नहीं रखता है। तनाव का मुख्य कारण दुःख है और दुःख का कारण, इच्छाओं या आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं होना है। शरीर, इन्द्रियों एवं मन की मांगे पूरी नहीं होने पर जो दुःख होता है, या उनकी पूर्ति करते समय जो बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, वे ही तनाव की स्थिति होती हैं। अन्तरात्मा ऐसी स्थिति में दुःख नही करती, अपितु दुःख के निराकरण हेतु साधना करती है। वह समझती है कि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, इसलिए इन्द्रियादि की, इच्छाओं की पूर्ति नहीं करके उनका शमन कर देती है। ध्यानदीपिका-चतुष्पदी में भी यही वर्णित है कि -'अन्तरात्मा वही होती है जो इन्द्रिय-विषयों के राग-द्वेष का त्याग करती हैं। 12 अन्तरात्मा के स्वरूप व लक्षणों को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव मोक्षप्राभृत में लिखते हैं –“जिसने भेदविज्ञान के द्वारा स्व–पर और आत्म-अनात्म का विवेक उपलब्ध कर लिया है, वही अन्तरात्मा है। 13 स्व और पर का भेद समझने पर व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो जाता है और ‘पर पदार्थों से मोह हटाकर स्व ध्यान-दीपिका चतुष्पदी - 4/8/3-6 13 "णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परतिग्गहं पयत्तेण अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएणं।19 || मोक्षप्राभृतम् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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