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________________ वस्तुतः हमें अपने मन का आसन बदलना चाहिये। मन की बैठक साफ-सुथरी हो, यह जरूरी है। दर्शन-शुद्धि, विचार-शुद्धि और आचार-शुद्धि मन का परिमार्जन करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। हम शांत मन से किसी भी विषय-वस्तु का चिन्तन करें। बोलें तब भी बड़ी शांति से, बड़ी मिठास से। जीभ में खराश न हो, आंखें लाल न हों। हमारी वाणी, हमारा व्यवहार, हर काम नपा-तुला होना चाहिये। कम क्यों तौलें ! पूरा तौलें, मीठा बोलें। न जरूरत से ज्यादा खायें और न ही जरूरत से ज्यादा सोयें। जीभ और जांघ की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश रखें। किसी की निन्दा या स्तुति में रस न लें। अगर हम अपने आप पर अपना पहरा बैठाये रखेंगे, तो आंखे बुरा नहीं देखेंगी। कान बेकार की बातों में रस नहीं लेंगे। जुबान गलत-सलत नहीं बोलेगी। _स्वयं को बुराइयों में जाने से रोकना और अच्छाइयों में लगाना ही जीवन-चक्र में धर्म-चक्र का प्रवर्तन है। धरती पर किसी चीज की कमी नहीं है। अगर कमी है, तो हमारी अपनी ही दृष्टि में है। यदि हम यह मान लें कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है अथवा जो हो रहा है, वह मेरी नियति और कर्मों की परिणति है, तो हम स्वयं को मानसिक ऊहापोह से बचा लेंगे। अब जब हम मनुष्य हैं, तो स्वाभाविक है हमें क्रोध आएगा, काम-भाव जगेंगे। पर, अगर हम अपने आपको सुख-शान्ति का स्वामी बनाना चाहते हैं तो वैर और उपेक्षा की बजाय क्षमा और भागवत् प्रेम को बढ़ायें। हर एक को परमात्मा की मूरत मानें। भले लोगों से मैत्री हो, दीन-दुखियों पर करुणा हो । पाप से बचें और स्वयं को सदा प्रसन्न रखें । ये सब वे साधन हैं, जिनसे हमारे चित्त, मन और Jain Education International For Personal & Private useअन्तर-गुहा में प्रवेश/६१ry.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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