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________________ हम अपने जीवन को सुधारें, मंगलकर बनाएं। धर्म-ध्यान पूर्वक जिएं। सुख-शांति से जीने के लिए ही धर्म है। मृत्यु के बाद आसमान में बने स्वर्ग को पाने के लिए अथवा पाताल में बने नरक से बचने के लिए धर्माचरण की पहल न करें। नरक और स्वर्ग दोनों हमारे भीतर हैं। भीतर में जल रही आग नरक है, उसे बुझाना धर्म है। भीतर में स्वर्ग के स्रोत हैं, उन्हें उपलब्ध करना धर्म है। अभी स्वर्ग तो बाद में भी स्वर्ग; अभी नरक तो बाद में भी नरक। हर मनुष्य पतित से पावन हो सकता है, शैतान से देवता बन सकता है। नर से नारायण हो सकता है। सरलता, प्रसन्नता, आत्मीयता, प्रामाणिकता और निर्भीकता ये पांच गुण मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करते हैं। वस्तुतः हमारे आचार-विचार पर सात्विक और दैवीय गुणों का साम्राज्य होना चाहिये। हम सदा उस प्रेम से प्रेरित रहें जो आत्मा को आत्मा का सुख और साहचर्य प्रदान करे । अन्तरात्मा की दिव्यता ही मनुष्य को देवता बनाने का सहज सरल सूत्र है। Jain स्वर्ग-नरक/४२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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