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________________ को भी समझ सके। रोग, कषाय और विकार को शरीर तथा मन का स्वभाव मानकर अपनी अन्तर-स्थिति को बरकरार रख सके। हमें आत्म-बोध और विश्व-प्रेम के साथ धरती पर जीना आना चाहिये। साधना द्वारा पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त करना अथवा आकाश में उड़ने की शक्ति अर्जित करना यह साधना का आध्यात्मिक रूप नहीं है। पानी में तैरना या आकाश में उड़ना तो मनुष्य का मत्स्य-जन्म है, पक्षी-जन्म है। मनुष्य की सार्थकता तो इसी में है कि वह सच्चा मनुष्य बनकर मनुष्य के साथ जी सके। अपने पाँवों के बलबूते धरती पर चलने का आत्म-बल बटोर सके। औरों पर तो हमें प्रेम के मोती लुटाने ही हैं, पर सबसे पहले हमें आत्म-सुधार पर ध्यान देना चाहिये। मनुष्य के पास सृजनात्मक शक्तियों की पूरी सम्भावना है। वह अपनी स्वार्थी और विकृत प्रकृति को बदले, साथ ही अपने आत्म-विश्वास को उपलब्ध कर स्वयं में नई शक्तियों एवं सम्भावनाओं को भी जन्म दे । हर रोज कम-से-कम सुबह-सांझ तो अपने भीतर का निरीक्षण कर ले, अपनी कमजोरियों को दूर कर ले। स्वयं तो परम शांति में जिये ही, औरों को भी अपनी ओर से सौरभ प्रदान करे। हमें सबके लिए भी जीना आना चाहिये । व्यक्तिगत अभ्युदय के साथ समष्टि का अंग बनकर जीना चाहिये। केवल काम और अर्थ ही हमारा पुरुषार्थ न हो, धर्म और मोक्ष भी हमारे पुरुषार्थ और लक्ष्य होने चाहिये। इस पुरुषार्थ के लिए ही कभी आश्रम की व्यवस्था की गई। आश्रम का अर्थ मठ या मठाधीश होना नहीं है। आत्मोदय के साथ सर्वोदय के विचार व भाव ही आश्रम-व्यवस्था की आधारशिला हैं। Jain Education International For Personal & Private use अन्तर-गुहा में प्रवेश/२७५.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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