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________________ हो जाये, तब भी बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। मेरे देखे तो, आत्मबोध और आत्म-चौकसी को हाथ में रखो और शेष सब कुछ नियति पर छोड़ दो, जो हो, जैसा हो, उसके दृष्टा बने रहो। आज की नियति वास्तव में आत्मा का अतीत रहा है। आत्मा न तो कभी पूरी तरह शुद्ध रही और न ही मुक्त । वह अपने संस्कारों के सातत्य के कारण अथवा विकृत प्रकृति और योगानुयोग के कारण सदा-सदा से संसार में रही है, संयोग-सम्बन्धों के मकड़जाल में भ्रमणशील रही है। आत्मा किस धाम से आयी, इसको पैदा किसने किया, इस सन्दर्भ में मौन रहना ही सार्थक है। बस, यह भीतर के आकाश में बैठी एक मौन सत्ता है, सम्पदा है। यही जाना है। जब गहरे ध्यानयोग में, परिपूर्ण शून्य में हमारी बैठक होती है, तो आत्मा आनन्द और ज्योति स्वरूप चैतन्य-समुच्चय के रूप में ही ज्ञात होती है। गूढ़ मन में हम अपनी नियति, संवेगों एवं संयोग-सम्बन्धों के भी साक्षी होते हैं। अपने अतीतगत संयोगों को देखकर ही यह जाना कि मनुष्यात्मा इस एक जन्म की ही ईजाद नहीं है। इस जन्म से पूर्व भी इसका अस्तित्व रहा है। जिन कर्म-प्रकृतियों को हम आज अपने अन्तरमन में अनुभव कर रहे हैं, उसका कर्ता पहले भी रहा । एक बात तय है कि हम अपने कर्म-प्रदेशों, वृत्तियों और संयोगों से सदा घिरे हुए रहे हैं। अशुद्धि और बन्धन, कम हों या ज्यादा, सदा हमारे साथ रहे हैं। दुर्भाग्य और सौभाग्य के नक्षत्र हमारी ही निर्मिति हैं। कालचक्र की चाल में कौन सदा एक-सा रह पाया है? दुनिया एक मुसाफिरखाना है और हम इसमें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org jan अंतरंग/१८
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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