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________________ Jain रहते हैं, पर हमारी अन्तस्- चेतना इस बनने-बिगड़ने के हर दस्तूर से ऊपर है । अपने पड़ौसी के घर-आंगन में बंधे पिंजरे और उसमें राम-राम करते तोते को देखकर लगता है कि यह शरीर भी तो आखिर एक पिंजरे जैसा ही है । 'आत्मा' के नाम से पहचानी जाने वाली सत्ता इस पिंजरे में रहने वाला प्राण-पखेरू है । जीवन न तो कोरा शरीर है और न ही मात्र आत्मा । जीवन दोनों का संयोग है - शरीर और आत्मा की मिली-जुली सरकार है । शरीर भौतिक पदार्थों का मिश्रण और रासायनिक विकास है । आत्मा चैतन्य - ऊर्जा है, भौतिक पदार्थों के मिश्रण को प्राणवन्त करने वाली शक्ति । शरीर में आत्मा का निवासस्थान उसका अपना अन्तर-मस्तिष्क है। आत्म-प्रदेशों का सर्वाधिक घनत्व मस्तिष्क में और मस्तिष्क के इर्द-गिर्द रहता है । इस घनत्व को हम एक तरैया की तरह समझें । यह शिवमंदिर में बनी जलेड़ी की तरह है। जलेड़ी की नाल पृष्ठ मस्तिष्क की ओर है और इससे प्रवाहित होने वाली संवेदनाएं रीढ़ की ओर, हृदय और नाभि की ओर जाती हैं। किसी चीज का स्पर्श होते ही संवेदना होती है और यह संवेदना मनोमस्तिष्क और शरीर के विभिन्न केन्द्रों को प्रभावित और आन्दोलित करती है । हमारे शारीरिक और आन्तरिक जीवन का यह एक सहज विज्ञान है । हम अपने जीवन का अंतरंग समझें । मनुष्य दो प्रकार की शक्तियों का स्वामी है, जिनमें एक शरीरगत है और दूसरी चेतनागत । शरीरगत शक्ति स्थूल है और इसका केन्द्र नाभि तथा उसके नीचे है । शरीर का ऊर्जा - कुंड यहीं निर्मित अंतरंग /१४ mal For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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