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________________ पड़े हैं। अगर दौड़ रहे हैं तो बगैर किसी बोध के, पागलों की तरह। उसे सुख का क्षणिक अहसास तो होता है, पर फिर वापस दुःखी का दुःखी। वह शरीर तक जाकर लौट आता है या वहीं रुक जाता है। चाहे स्त्री हो या पुरुष अथवा व्यक्ति स्वयं ही क्यों न हो, हम केवल शरीर को न देखें। उसकी आत्मा में भी प्रवेश करें। अन्तरात्मा की विराटता, मधुरता और सुखशांति ही जीवन को सुख तथा आनन्द के आयाम देती है। अन्तरमन में शांति न हो, तो शेष शान्ति का क्या मतलब? बीमार आदमी को स्वास्थ्य चाहिये। वह लाखों के धन को क्या चाटेगा? आत्म-बोध और आत्म-निर्मलता से सच्ची सुख-शांति का अनुभव होता है। इसके लिए जरूरी है कि हम पहचानें कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं, पीड़ाएं और विकृतियां हमें क्यों घेर लेती हैं। अपने आपको सुखी कैसे किया जा सकता है, मुक्त कैसे हुआ जा सकता है। सच्ची शांति मनुष्य को अन्तरात्मा में ही उपलब्ध हो सकती है। कषाय, विकार और जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से विलग रहकर, साक्षी-भाव के साथ उनका विसर्जन करने से ही अन्तरमन में सुख, शांति, आनंद निर्झरित हो सकते हैं। जिससे हमारी असत् वृत्तियां तथा प्रवृत्तियां मिटें, वही धर्म है, अध्यात्म है। हम वही क्रियाएं आचरित करें, जिससे अन्तरमन निर्मल हो, मंगलमय हो। ___ हमारा जन्म किसी की बनी-बनायी लीकों-लकीरों पर चलते रहने के लिए नहीं हुआ। धर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं, अगर उससे आत्म-निर्मलता, आत्म-शांति, आत्म-मुक्ति का प्रतिदिन रसास्वादन होता हो, तो ही वह स्वीकार्य है। अन्तरमन उज्ज्वल न हो, काम-क्रोध-कषाय तिरोहित न हो, तो Jain Education International For Personal & Private Use Onlअन्तर-गुहा में प्रवेश/५.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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