________________
नींद खोलें भावों की
लोग न पूजे, कोई बात नहीं। सिर के मुण्डत्व और वेश के सिद्धत्व की चिन्ता न करें। जो भाव-सिद्ध है और जो वेशसिद्ध है उसमें यही तो फर्क है। वेश-सिद्ध होने से बाना बदल जाएगा, नाम बदल जाएगा, लोग पूज लेंगे। भाव-सिद्ध व्यवहार में पूज्यपाद न हो पाएगा, मुक्ति तो उसकी चरण सेवा जरूर कर लेगी।
एक साधु ऐसा है, मेरी नजर में वह साधु ही है, वह अनासक्त और निलिप्त जीवन जीता था। किसी ने मुझे पूछा, आपने उसे साधु कैसे कहा ? कोई उससे नाम पूछता तो वह कहता अमरचन्द । वह तो अमरचन्द है। साधु हो तो नाम अमर सागर या मुनि अमर सागर होना चाहिए। किसी को साधु मानने के लिए नाम, बाना जरूरी समझते हो।
यह साधना तो भावनाओं से जुड़ी है। मूल तथ्य तो यही है कि हम भावनाओं के द्वारा जितना समृद्ध हो सकें, हो लें। उन्हें पवित्रतम बनाएं। भीतर से बदलाव पर जोर रखो। केवल बाहर से ही आरोपण जारी रखा तो होगा यही कि हाथी जाएगा तालाब में, नहाकर भी आएगा मगर आते ही अपनी सूड में रेत भरकर अपने ही ऊपर उछाल लेगा। नहाना बेकार हो जाएगा। भावनाओं का स्नान तो ऐसा है कि मन चंगा तो कठौती में भी गंगा । इसलिए कुन्दकुन्द कहते हैं कि धर्म सहित तो लिंग होता है, परन्तु लिंग मात्र से ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org