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भगवत्ता फैली सब प्रोर
जिस दिशा में छलांग मारना चाहते हैं, वहाँ अमृत की रिमझिम रिमझिम बरसात है । इसलिए दो चीजों की जरूरत है - श्राग का बोध और सावन का बोध । श्रागे कदम वही बढ़ायेगा जो अपनी वर्तमान स्थिति से प्रसन्तुष्ट है । अगर हमें लग रहा है कि हमारी शय्या फूलों पर है तो अन्य किसी विकल्प की तलाश हमारा मन कबूल ही नहीं करेगा । हम पड़े तो हैं कांटों के बिछौनों पर, और कांटों को फूल समझ लिया है । यह हमारा अज्ञान है । अज्ञान ही परतन्त्रता और तादात्म्य का सेतु है ।
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सेतु केवल ज्ञान का होता हो, ऐसा नहीं है। अज्ञानता ही सेतु होता है । ज्ञान का सेतु, उस पार से इस पार लाता है । यह विभाव से स्वभाव की ओर लौटने की यात्रा है ।
अज्ञान, ज्ञान का अन्धापन है । यह ज्ञान का विपर्यय है । प्रज्ञान इस किनारे से उस किनारे की ओर जाना है । यह स्वभाव से विभाव की यात्रा है । इस किनारे का अर्थ है- 'ब्रह्म विहार' और उस किनारे का अर्थ है - 'लोकविहार' । हमें इस किनारे का, अपने किनारे का स्वामी होना है । जाना कहीं नहीं है । जहाँ-जहाँ गये हैं महज वहाँ से लौटना है ।
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तीर्थंकर होने का मायना यही है कि उस किनारे से इस किनारे पर पहुँच गया । लोगों ने तो अर्थ लगाया है इस पार से उस पार जाने वाला व्यक्ति तीर्थंकर है । उनकी दृष्टि में यह किनारा संसार है और वह किनारा - 'मुक्ति', जबकि सत्य यह है कि वह किनारा संसार है और यह किनारा - मुक्ति । इस किनारे से उस किनारे की यात्रा तो प्रतिक्रमण है ।
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