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पकड़ का छूटना संन्यास की पहल
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मन्दिर में पुजारी ने किसी से पूछा कि तुम्हारी पहली आवश्यकता क्या है। उसने कहा 'सुन्दर पत्नी' कहा, दूसरी, बोला 'मारुति वैन', पूछा तीसरी, जबाब मिला- 'अपना मकान' । आवश्यकताओं की कतार में उसने बीसों चीजें गिना दी, मगर परमात्मा का तो उस कतार में कहीं नम्बर नहीं आया । घर में बैठ कर भी कार के बारे में सोचते हो और मन्दिर में जाकर भी । संसार में रहकर संसार के बारे में सोचा तो बात मामूली है।
जब मन्दिर
नतीजा यह
खतरा तो तब है में जाकर भी सांसारिकता के बारे में सोचते हो। होगा कि मन्दिर - मन्दिर न रह पायेगा । मन्दिर भी संसार और बाजार हो जायेगा ।
परमात्मा तब मिलते हैं, जब आवश्यकताओं की कतार में सबसे पहली आवश्यकता परमात्मा ही हो । परमात्मा तो तब मिलते हैं जब उसे पाने के लिए, अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार हो ।
धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है कि पन्द्रह मिनट तो धर्म करें और पौने चौबीस घण्टे धर्म के विपरीत चलें। धर्म तो जीवन की परछांई होनी चाहिए। न केवल हमारा हर वर्ग, बल्कि हर सांस भी धर्म के संगीत से परिपूर्ण हो । नहाने के लिए तालाब में उतरते हो और बाहर निकलते ही अपनी सूड में धूल, कर्दम अपनी पीठ पर उंडेलते हो। यह वास्तव में आत्म-पवित्रता की शक्ति नहीं, वरन् क्रान्ति है । भाव-स्वरूप
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