________________
५८
भगवत्ता फैली सब ओर
मौलिक सम्बन्ध नहीं है। ऐसा नहीं कि नग्न होने से मुक्ति मिल जायेगी और अंगोछा पहन लेने से नरक की सीढ़ियां नजर आ जायेंगी । परिग्रह का परित्याग करने के लिए छूटना चाहिए ग्रहण भाव / पकड़ भाव | 'मुच्छा परिगहो वुत्तो' । मूर्च्छा ही परिग्रह है । मूर्च्छा पकड़ है, मूर्च्छा का त्याग ही अपरिग्रह की अर्थ- अस्मिता है ।
कुन्दकुन्द का वक्तव्य है
भावो हि पढमलिंगं रण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिरणां बेंति ।। भाव ही प्रथम लिंग है । इसलिए द्रव्यलिंग को परमार्थ मत जानो । वास्तव में भाव ही गुणदोषों का कारण है ।
'भावलिंग' जीवन की धार्मिकता का प्रतिनिधित्व करता है । 'लिंग' का अर्थ है वह स्वरूप जिससे पहचान होती है । माला, छापा, तिलक, बाना, मोरपिच्छी, कमण्डल, दण्ड, काषाय चीवर - ये सब व्यावहारिक पहचान और व्यावहारिक संयम के लिए है । इनकी अपनी उपयोगिताएं होती हैं, किन्तु भाव रहित अपनाया गया कोई भी लिंग, वेष उतना ही महत्त्व रखता है जितना गंजे के सिर पर 'हेयर विग' । जब तक मन में जहर भरा हुआ है तब तक सर्पराज चाहे काषाय प्रोढ़ ले या गेरुप्रां, शेर की खाल ओढ़ लेने मात्र से गीदड़ शेर नहीं हो जाता । 'सिंहत्व' ही शेर की पहचान है । वेष
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org