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________________ ५२ भगवत्ता फैली सब ओर बोधपूर्वक जागरण ही ज्ञानमय रूपस्थ होने का सम्यक् दर्शन है। बाहर की हर गतिविधि यहाँ तक कि मन की हर उठापटक के प्रति भी साक्षी तटस्थ बने रहो और भीतर से स्वयं के बोध में जियो। 'अध्यात्म' की हमसे यही अपेक्षा है। बोधपूर्वक होने वाला साक्षीभाव ही आत्म-स्वरूप की विशुद्धता का अनुष्ठान है। रे रे समकित जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर से न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावै बाल ।। सम्यक् द्रष्टा पुरुष घर-गृहस्थी के बीच ऐसे ही रहता है जैसे धाय बच्चे को खिलाती-पिलाती है। बाहर से कर्तव्य का पालन होता है लेकिन भीतर से पकड़-मुक्त, निलिप्त । संसार में रहना बुरा नहीं है, बुराई तो तब आती है जब संसार हमारे हृदय में रच-बस जाता है। कमल के लिए खतरा तभी है, जब उसकी पंखुड़ियों पर कीचड़ चढ़ जाता है। तुम्हें कोई खतरा नहीं है अगर ऊपर हो कीचड़ से, मायाजाल से, कमल की तरह, कमल की पंखुड़ियों की तरह। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003967
Book TitleBhagwatta Faili Sab Aur
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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