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सजल श्रद्धा में निखरती प्रखर प्रज्ञा
कहीं-न-कहीं लंगड़ी खा चुका है। पण्डिताई तो मस्तिष्क में अवतरित हुई चीज है, जबकि श्रद्धा के घुघरु हृदय में बजते हैं। मीरा पांव में घुघरुषों को बांधकर नाची तो पण्डिताई की बदौलत नहीं, उसके घुघरु तो, उसके हृदय की ही आवाज है। श्रद्धा हृदय की ध्वनि है और घुघरु उसकी अनुगूज।
संसार में ज्ञान की कमी नहीं है। अगर कमी है तो ऐसे ज्ञान की, जिसमें श्रद्धा की कटौती हुई है। ब्राह्मण हिन्दू है। हिन्दू तो हरिजन भी है मगर इस बात को तुम कैसे अस्वीकार करोगे कि दोनों में कितनी दूरी है। वैचारिक तौर पर, भाषणों की चहल कदमी में हम जरूर हरिजन के प्रति नेक नियती की बात करते हैं पर, यदि साथ बैठकर खाना खाने की बात हो, या परस्पर विवाह करने की नौबत
आए तो शायद इस हिन्दुस्तान में गिनती के हिन्दू भी नहीं मिलेंगे। क्या जानते हो, हमारे ज्ञान और बर्ताव में यह विरोधाभास क्यों है ? मेरा जवाब रहेगा हम बुद्धिजीवी तो बन गए हैं मगर अन्तर्जीवी नहीं बने। श्रद्धा हार्दिकता है। यह शास्त्रीय दर्शन नहीं, हृदय का संगीत है।
कुन्द-कुन्द ने श्रद्धा को दर्शन कहा है। ज्ञान से जाना जाता है, दर्शन से देखा जाता है, विश्वास किया जाता है और चारित्र्य से ज्ञात सत्य का आचरण होता है। जाने हुए को करना और किए हुए को जानना, दोनों अनिवार्य है।
दर्शन वह आधार है जो आदमी के ज्ञान को 'चरित्र' में ढालता है। यदि श्रद्धा नहीं है तो कोई भी आदमी ज्ञान को अपना चरित्र नहीं बना पाएगा। मेरे मन में आपके प्रति प्रेम है और मैंने आपको जान लिया है तो, मैं आपको प्रणाम
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