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अज्ञान की स्वीकृति-ज्ञान की पहली किरण
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धर्मों के लोगों को मान्य हो। उसने हर धर्म की अच्छी बातें ग्रहण की और उन्हें एक साथ एक सूत्र में पिरोया। मगर लोग उसकी भावना को नहीं समझे।
हर धर्म में अच्छी बातें हैं। चामत्कारिक पुरुष हैं, तो फिर हर धर्म के लोगों से इसकी चर्चा क्यों न की जाए। मूल बात तो ज्ञान प्राप्त करना है। जहाँ अच्छी बातें मिले, उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। अकबर के दरबार में मौलवी थे, पण्डित थे। वह विदेशों से इसाई पादरी को भी बुलाता था और धर्म पर चर्चाएं आयोजित करता था ताकि हरेक दूसरे के धर्म की बातें जान सके। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि अकबर जब युद्ध करने जाता था तो भी किसी विद्वान को साथ ले जाता था। उसे जब समय मिलता वह चर्चा करता। अकबर को ज्ञान प्राप्त करने की प्यास थी।
ज्ञान तो ऐसी सम्पदा है, जिसे संचित करना किसी के लिए भी शर्मनाक नहीं होना चाहिए। जैसे चर्चा है, वैसे ही यात्रा है। यात्रा की सार्थकता चर्चा से है और चर्चा ज्ञानप्राप्ति के लिए ही है। भारत में आध्यात्मिक ज्ञान की भरपूर सम्भावना रही है, इसीलिए देश-देशान्तर से लोग यहाँ आते हैं। हजारों वर्षों से आते रहे हैं। तब भारत की यात्रा कर पाना बड़े सम्मान की बात माना जाता था। दूसरे देश वाले उस व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखते थे, जो भारत की यात्रा कर चुके हैं, यानी उसने ज्ञान के अध्यात्म पक्ष को भी जाना है। ऐसे व्यक्ति को स्लाव भाषा में 'इंदिकोपोलिउस' कहा जाता था। इंदिकोपोलिउस कहलाना तब बड़े सम्मान
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