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पुस्तकाकार में
मानव हो महावीर के जैसे जीवंत सद्गुरु ही अवतरित हुए है, पथ-विस्मृत पथिकों का हाथ थामने को ।
वे बांट रहे हैं एक समझ
अपनी ही संभावनाओं को तलाशने की,
पहचानने की ।
वे कर रहे हैं हमारा आह्वान - स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ! वेदे रहे हैं हमें आत्मविश्वास
स्वयं महावीर हो जाओ!
अब शांत होना, शांत रहना असंभव नहीं, जब कोई हमारे पथ पर, पग-पग पर अपनी स्नेह - आपूरित प्रज्ञा के दीप संजोने को, हमारे साथ-साथ चल रहा हो, जिसका
अभय - हस्त हमारे सिर पर हो ।
उनकी संबोधि को, वाणी को, लेखनी को,
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भूमिका देना न संभव है, न उपयुक्त;
यह तो है बस -
उनके श्री चरणों में
अभीप्सित हृदय का अहोभाव-पूर्ण नमन
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- निःशेष
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