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महावीर ने बात कही - सम्यक् दर्शन की। पहले सही देखने की जरूरत है। जब तक व्यक्ति श्रावक नहीं बन सकेगा तो वह साधु कैसे बन पाएगा? कोई अगर सच्चा साधु नहीं है तो उसका एकमात्र कारण सम्यक् दर्शन का अभाव है। आजकल तो चारों ओर यही प्रयास हो रहे हैं कि साधु, सही साधु बने, लेकिन ये प्रयास नहीं होते कि श्रावक सही मायने में श्रावक बने। आखिर साधु भी तो श्रावक से ही आया है। पहला चरण ही कमजोर है तो दूसरा तो कमजोर होगा ही। इसलिए सही शुरुआत करो।
___ पहला कदम सम्यक् दर्शन - सही देखो, सुन्दर देखो। दूसरा - सही जानो, सुन्दर जानो और तीसरा कदम होना चाहिए - सही करो, सुन्दर करो। सही और सुंदर देखने और जानने के बाद करना ही सही प्रक्रिया है। यही सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र है। दर्शन यानी देखना, ज्ञान है जानना और चरित्र का अर्थ है देखे और जाने हुए को व्यवहार में लाना। हम लोग उलटे चलते हैं। हमारे लिए वेश का मूल्य हो गया है, जीवन का मूल्य नहीं रहा।
बाहर से साधु हो जाना साधुता नहीं है। हर व्यक्ति बाहर से साधु हो भी नहीं सकता। लेकिन हर आदमी भीतर से साधु जरूर बन सकता है। मेरा यही प्रयास है। मैं यह नहीं कहता कि झोली-डंडा लेकर इस मार्ग पर आओ। मैं तो कहूंगा कि अपने दिल को जितना अधिक साफ विचारों से भरोगे, उतना ही तुम्हारे लिए लाभदायी रहेगा। अपने हृदय को साधु बनाओ। बाहर से साधु बनो तो बलिहारी. लेकिन भीतर भी साधु बन गए तो समझो दीक्षा घटित हो गई। दीक्षा का अर्थ चार बाल नोंच लेना नहीं है। दिल बदला, दीक्षा घटित हो गई।
___ सम्राट अशोक कलिंग में युद्ध के बाद एक बौद्ध भिक्षु के पास गए। भिक्षु अशोक को वापस युद्ध के मैदान ले गया और वहां पड़ी लाशें दिखाईं। पुरा मैदान जैसे मरघट हो गया था। अशोक का हृदय ही परिवर्तित हो गया और वे दीक्षित हो गए। दिल बदला, इतना ही काफी है।
जयप्रकाश, विनोबा आदि की प्रेरणा से यदि डाकुओं का हृदय पिघलता है तो यह जीवन की एक प्रवज्या ही है। भीतर का कायाकल्प हुआ, माटी फूल और गंदगी सुगंध बन गई। मनुष्य का
मानव हो महावीर / ४६
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