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उठता है, भोजन करता है दिन भर स्कूटर पर सवार रहता है। रात्रि में भोजन करके बिस्तर पर पड़ जाता है। यही कारण है कि वह जो खाता है, शरीर को स्वस्थ नहीं बना पाता। मल का ही निर्माण होता है। शरीर की ऊर्जा भीतर ही भीतर दूषित होती रहती है।
वाग्भट्ट कहते हैं कि सम्यक् आहार हो, सम्यक् विहार हो। अपने शरीर, प्रकृति, आयु, ऋतु, समय, 'देश इन सब बातों पर विचार करके अनुकूल और लाभदायी खाने-पीने की चीजों का इस्तेमाल होना चाहिये। स्नान, व्यायाम, सैर, मेहनत, जगना-सोना आदि भी समुचित हो। अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह जरूरी है।
समीक्ष्यकारी'-सोच-समझकर काम करो। बिन सोचे काम कर बैठे तो बाद में पछताना पड़ेगा। जोश और जल्दबाजी पर नियन्त्रण रखने वाला, मानसिक कष्टों से अपने आपको बचाकर रख सकता है। मैं तो कहूंगा, आदमी जो कुछ भी करे, सोच-समझकर करे ताकि उसे बाद में पछताना नहीं पड़े। कुछ भी करो, पहले सोचो। लगता है कि बुरा हो रहा है तो उस काम को तुरंत रोक दो, गलती होने से बच जाएगी। केवल आसन कर लेना ही संयम नहीं है। जब आदमी को लगे कि उससे गलत काम हो रहा है तो उसी समय उसे रोक देना भी संयम ही
कहूंगा, आदमी
है।
.वाग्भट्ट का अगला सूत्र है - विषयों के प्रति आसक्ति न हो। आदमी को उपयोग-उपभोग तो जरूर करना चाहिए, लेकिन आसक्ति नहीं रखनी चाहिए, अनासक्त हो जाना चाहिए। हम तो इंद्रियों का आनंद उठाने में इतने मशगूल हैं कि हमें इनसे परे कुछ और नजर ही नहीं आता।
आंख का रस है - देखना। रूप देखना। पतंगा इसीलिए तो जल जाता है और अपने प्राण गंवाता है। वह शमा से आकर्षित होता है। कान का रस है - सुनना। हरिण बांसुरी सुनकर वहां पहुंच जाता है, जहां से वापस लौटना उसके बस में नहीं होता । 'नाक भी कम नहीं है। इसका काम है - सूंघना। गंध पाकर भंवरा फूल के आसपास मंडराने लगता है और उसके भीतर बैठकर आनन्द लेने लगता है। शाम होते ही पंखुड़ियां बंद होने लगती हैं और उसके प्राण-पखेरु उड़ जाते हैं। जीभ का रस है - स्वाद। कांटे में फंसा आटा देखकर मछली
मानव हो महावीर / २५
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