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"सव की समरसता का कर प्रचार, मेरे सुत सुन माँ की पुकार ॥"
(कामायनी-प्रसाद, श्रद्धा सर्ग से) पर माँ की पुकार को कौन सुने ? उसकी ममता को कौन पहचाने ?
माँ की ममता की आज मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं, उसकी शान बताता हूं, गौर से पढ़ना माँ के जाये ! एक माँ का नौजवान पुत्र था। पिता का प्राण प्यारा । माँ का राजदुलारा। एक दिन सायंकाल वह अपने मित्र के साथ मनोरंजन के लिए जाते जाते एक वेश्या-गह में प्रवेश कर गया। इसी का नाम है "औरत"। और बन गया वैसा ही जैसा उसकी संगत से बनना चाहिए। कौन मनुष्य कैसा है,यह पूछना चाहते हैं तो पहले मुझे यह बतादें कि वह ज्यादातर किस के साथ रहता है। उसकी संगति कैसी है तत्पश्चात मैं बता दूंगा कि अमुक मनुष्य के सा है। " संगति का असर अवश्य पड़ता है। मनुष्य ही क्या पशु-पेड़ आदि पर भी संगति का अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ता रहता है। मानव तो सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, इसलिए उस पर अच्छे-बुरे संग का प्रभाव पड़े तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? उस युवक में जितना भी विनय-विवेक था वह सब उस हसीना के साथ से समाप्त हो गया । तुलसी ने कहा है कि "बिन संतसंग विवेक न होई" वह वैश्या पर दिलोजान से दीवाना हो गया, उसकी मुहब्बत में वह शहजादा हो गया। उसके बिना वह भोजन-पानी भी नहीं कर पाता । यदि कर भी लेता तो हजम नहीं होता । “काम बढ़े तिय के संग कीने" । ____ एक दिन अवसर देखकर उस पुत्र ने फरियादी बन कर कहाहे शहजादी ! यदि बुरा न मानो तो हम प्रेम-विवाह कर लें।
तुनक कर नाज से वह बोली-हे बिस्मिल ! ऐतबार नहीं, कहीं धोखा दे गया तो। अब अधिक दिल मत भर मौहब्बत का। बातों
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