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नारी के प्रति किसी किसी ने तो यहां तक कहा कि"स्त्रियो हि मूलं निधनस्य पुसः, स्त्रियो हि मूलम् व्यसनस्य पुसः । स्त्रियो हि मूलं नरकस्य पुसः स्त्रियो हि मूलम् कलहस्य पुसः ॥"
स्त्रियाँ पुरुष की मृत्यु का, विपत्ति का कारण हैं। स्त्रियाँ नरक गति का मूल कारण हैं । और वे ही पुरुष के कलह का कारण हैं । इतना ही नहीं बल्कि यहाँ तक भी कहा गया है कि
"अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता। अशौचं निर्दयत्वञ्च, स्त्रीणां दोषा स्वभावजाः ॥"
झूठ, साहस, मूर्खता, लोभ, अपवित्रता और क्रूरता स्त्रियों के स्वभाव एवं जन्मगत दोष हैं।
यह विचारधारा पुरुषों की स्वार्थपरायणता एवं घोर अन्याय की सूचक है। साथ ही मानव-वर्ग हेतु कलंक भी है। पुरुषों को जन्मापित कर उन्हें अपना रक्त पीयूष की भांति पिलाना और अपने समस्त सुखों का बलिदान करके,असंख्य कष्टों को सहन करती हुई अपने पति और पुत्र-पुत्री को सुखी रखने वाली माँ कभी पुरुष के कलह एवं उसकी मृत्यु का कारण नहीं बन सकती है। कदापि नहीं। हमारा समाजशास्त्र और धर्मशास्त्र पुकार-पुकार कर कहता है कि मनुष्य के कर्म ही उसे स्वर्ग-नरक एवं विभिन्न योनियों की प्राप्ति कराते हैं। यदि हमारी माताएँ ही पुरुष के नरक का मूल कारण है तो सभी पुरुष नरक में ही जाते तो अन्य योनि उन्हें प्राप्त ही नहीं होती।
अरे साहब ! हमारी पित संस्कृति के विषय में मत पूछिये । किसी समय में पिता पुत्र को विक्रय कर देता था। अजीगत एक क्ष धार्त ब्राह्मण था। उसने अपने पुत्र को शुनः शेप को सौ गौओं के बदले में बेच दिया था। (ऐतरेय ब्राह्मण ७/१२) पिता ऐसी-ऐसी सजा पुत्र को देता था कि ऋग्वेद (१-११६-१६) में एक कथा है कि वृषागिरि ने ऋज्राश्व को अन्धा कर दिया था। बाद में अश्विनी
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