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अभिनंदन
'माँ' पुस्तक को मैंने श्राद्योपान्त पढ़ा है । यदि ऐसे कहूँ कि अक्षरशः पढ़ा और समझा है तो यह यथार्थ है । जब मैंने इसको पढ़ना आरम्भ किया तो विचार उभरने लगा कि यह कैसा विषय है । जिस पर साहित्य विशारद युवा मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर जी को अपनी लेखनी चलाने पर विवश होना पड़ा, परन्तु प्रारम्भ कर देने के पश्चात् पूरी पुस्तक पढ़ना एक अनिवार्य हार्दिकता हो गई । 'माँ' पर पुस्तक लिखी देखकर लगा कि सम्भवतः रूसी लेखक गोर्की के 'माँ' उपन्यास-सा कोई उपन्यास लिखा गया है ! परन्तु एक जैन मुनि का उपन्यास- साहित्य से क्या सम्बन्ध हो सकता है ? इसलिए " श्राश्चर्यवत् पश्यति कश्चदेनम्" की उक्ति के अनुसार इसे पढ़ने लगा ।
इस रचना का क्या नाम साहित्यिक परिवेश में हो सकता है' यह निश्चित करना सरल नहीं है। न तो उपदेशात्मक व्याख्यानों का ही अविकल संग्रह है । न ही इसे लम्बी कथा का नाम दिया जा सकता है। न ही यह लघु उपन्यास की परिधि में आ सकता है । तब इसे मैं एक युवा विचारक का उल्लास कथाकाव्य कहना उचित समझता हूँ । भारतीय साहित्य शास्त्र में ऐसी रचनायें उपलब्ध हैं जो विविध परिवेशों में भ्रमण करके भी एक केन्द्र बिन्दु पर आकर स्थिर हो जाती हैं । 'माँ' कृति की भी यही स्थिति है । छोटे-छोटे दृष्टान्तों, प्रसिद्धअप्रसिद्ध कथा - खण्डों, देश-विदेश के अनेकशः महाकवियों के काव्यांशों से समन्वित यह रचना माँ को केन्द्र में रखे हुए हैं ।
नारी की दार्शनिकों ने माया, प्रकृति और जननी के रूप में व्याख्या की है । उसके जननी के अतिरिक्त बहन, पुत्री, भार्या और वार- विलासिनी आदि रूप
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