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________________ जीवन छोड़ कर यहाँ रह गया था। तुम ऊपर पधारो तो मैं सारी बात सुनाऊँ। ऊपर चलो ! भद्रा बोली बेटा ! तुम्हारे विलास भवनमें पाना मुझे प्रकल्प्य है। तुम संयम त्याग कर विलासी जीवन में कैसे तत्पर बने । क्या अब भी तुम्हारे में भोग-लालसा बची है ? भले तुम्हें इन्द्रियों के भोग भोगने हों तो भोगो किन्तु इसमें बचा हुआ पुण्य भी हार जाओगे। माता के इन हृदय संवेद्य शब्दों ने अर्हन्नक की सुषप्त आत्मा को जागत किया। इस रोगी पुत्र को माँ के इन प्रेम भरे शब्दों ने सौ चिकित्सकों का कार्य कर दिया। उसने कहा-माता मैं भूला ! केवल ताप के भय से आराम की शोध में पड़कर मैंने अपना सारा चरित्र ध्वंस कर लिया किन्तु आज आपके शुद्ध स्नेह ने मुझे सचेत कर दिया है । मैं फिर से चरित्र ग्रहण करूँगा। किन्तु माता इस प्रकार के अनेक दुःख सहन कर रिस-रिस कर मरने की बजाय मैं अब अनशन ही करूंगा। और देह की दुष्ट वासनाओं का अन्त कर दूंगा। __क्योंकि माँ ! मेरा वासनाग्रस्त मन पिंजड़े के सिंह के समान चंचल रहता था। किन्हीं दासों का ऐसा दलन नहीं होता जैसा वासना के दासों का । मुझ से बढ़कर राह से भटका हुआ और कौन है जो अपनी वासना के पीछे चलता है। अब मैं जड़ से राग-द्वेष नष्ट कर दंगा, इसी में वासना का मरण है। जब उसने यह कहा उसी समय उस स्त्री ने घर में से आकर साध्वी जी को वन्दन किया और अर्हन्नक को कहने लगी हे महाभाग! इस सारे अनर्थ की मूल मैं हूँ। मैंने ही तुम्हें लोभ में डालकर चरित्रभ्रष्ट किया, किन्तु मेरे हृदय में एक भावना थी कि एक दिन मैं पूर्व के मुनिवेश में तुम्हें वापस भेजूंगी और इसी प्राशय से जिस वेश में तुम यहां आये थे। उस वेश को मैंने अत्यन्त सावधानी से संभाल कर रखा है। आज मैं भी तुम्हारे साथ चरित्र ग्रहण कर अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहती हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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