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है कि “ईश्वरीय प्रेम को छोड़कर दूसरा कोई प्रेम मातृप्रेम से श्रेष्ठ नहीं है।" कारण यह कि उसमें जीवन का सारल्य और वाणी के प्रोज के साथ हृदय का माधुर्य समाहित है। वह प्रेममयी वाणी वीणा की मृदु झंकार के सदृश है। जिस प्रकार वीणा की झंकार मधुर और कोमल होती है, उसी प्रकार इसकी वाणी भी सरस और कोमल होती है। ___यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि मां के प्रेम के प्रास्वादन की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है ? उत्तर है-जिस प्रकार से विविध प्रकार के व्यंजनों के मेल से निर्मित भोजन को खाते समय सुमनस पुरुष-परिष्कृत मन वाला व्यक्ति हर्षादि को प्राप्त करता है, उसी प्रकार से वाणी, अंगादि से स्वाभाविक रूपेण सूचितव्य क्रियाएँ स्फुरित नाना प्रकार के भावों से व्यंजित होते ही स्थायी भावों वाला सहृदय पुत्र उसके प्रेम वात्सल्य का आस्वादन करता है और प्रसन्नता प्रफुल्लता भी संप्राप्त करता है । उसका समागम मन के सन्ताप को दूर करता है और प्रानन्द की वृद्धि भी साथ ही साथ चित्तवृत्ति को संतोष भी देता है।
भारतीय ऋषि नारद जी ने भक्तिसूत्र में प्रेम की . व्याख्या करते हुए लिखा है-"अनिवर्चनीयं प्रेम स्वरूपम् मूकास्वादनवत्"। अर्थात् प्रेम का स्वरूप अवर्णनीय है । तथा इसका आस्वाद गूगे के गुड़ के समान है। स्पष्ट है - कि प्रेम एक गहन, गम्भीर, पवित्र, सात्त्विक अनुभूतिजन्य आकर्षण है, जिसके उदय होने से माँ, पुत्र, पुत्री, रूप त्रिवेणी को आनन्द की प्राप्ति होती है।
पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, अरणि काष्ठ में अग्नि, दूध में घी, ईख में गुड़ और सूर्योदय वेला में गगन में तारे दिखाई नहीं देते किन्तु उनका अस्तित्व उसमें छिपा रहता है । तथैव माँ के हृदय का
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