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________________ जीवित है। माँ की मानसिक क्रिया में प्रेम एक उत्तमोत्तम तत्व है। सातत्य और समता में कैसा अजोड़ है-माँ का प्रेम ! उसके प्रेम की विपुलता, विरलता और विशालता की तुलना में व्यक्ति का नहीं, समाज का नहीं, प्रान्त का नहीं, राष्ट्र का भी नहीं, सम्पूर्ण विश्व का अन्य कोई भी प्रेम नहीं आ सकता। पा सकता है ? क्या आ सकता है—मेरा और आप का सिर? वह भी नहीं आ सकता, कदापि नहीं। प्रेम सकल श्रुति सार हैं, प्रेम मि सकल स्त मूल । प्रेम पुराण प्रमाण हैं, कोउ न प्रेम के तूल ।। हिन्दी गद्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह कथन असत्य नहीं है, क्योंकि उसकी प्रेमानुभूति में जहाँ एक अोर गौरव-गरिमा व उदात्तता है तो दूसरी ओर सहजता, स्वच्छता और मर्मस्पर्शिता भी। जो अनुकूल और उपयुक्त वातावरण पाकर मानव हृदय के सुषुप्त स्थायी भावों को उदीप्त और उबुद्ध कर देती है। प्राचीन-अर्वाचीन प्राज्ञ-पुरुषों और आधुनिक कवियों ने भी इसी कारण माँ के प्रेम की महिमा की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है तथा इसके गुणगान गाये हैं। कारण ? कारण उसका हृदय है। जो विशाल, परम विशाल है। उसके समक्ष शायद अम्बर भी छोटा होगा। हृदय मन्दिर में जो प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ है। उसके बारे में बंगला उपन्यासकार विभति भषण वंद्योपाध्याय ने डंके की चोट से 'पथेर पांचाली' में लिखा है कि “माँ बच्चे को स्नेह देती है और उसे आदमी बना देती है, इसलिए उसके अन्तर में युग-युगान्तर से सर्वत्र माँ की गौरव गाथा प्रतिध्वनित होती रहती है।" स्व शिशु ही नहीं मानव जाति के प्रति उसके हृदय में असीम प्रेम एवं सद्भाव है। वह यह भी जानती है कि प्रेम चन्द्रमा के समान है। अगर वह बढ़ेगा नहीं तो वटना शुरू हो जायेगा। अतः माँ पुत्र से अत्यधिक प्रेम करती है। इसीलिए सीगर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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