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________________ १११ मैं जुगनू बनकर तो तुझ तक पहुंच नहीं सकता। जो तुझ से हो सके ऐ माँ! तो वो तरीका बता ॥ तू जिसको पाले वो कागज उछाल दूं कैसे? ये नज्म तेरे कदमों पर डाल दूं कैसे ? ॥ जगत् के प्रत्येक धर्म एवं समाज ने माँ हेतु विविध बातें दिग्दर्शित कराई है। फिर चाहे वह वैदिक, जैन, बौद्ध, शैव, न्याय दर्शन, मीमांसक, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख हो पारसी ; प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय, मत,मजहब व रिलीजन ने मां को अवश्य याद किया है । माँ की सेवा मन, कर्म-वचन इन तीनों से होनी चाहिए। चाहे अपनी काया को कितनी भी कठिनाई सहन करनी पड़े पर माँ की सेवा के लिए दृढ संकल्प कर लेना चाहिए। अपरिहार्य हो तो मन मारकर, स्वयं के हृदय के साथ बांध-छोड़ करके भी उसे प्रसन्न रखना चाहिए। माँ खुश तो जगत् खुश उसे दुःख तो संसार को दुःख । उसकी प्रसन्नता में ही सारी सृष्टि की प्रसन्नता समाहित है । अभी तक यह प्रश्न उपस्थित है कि मां बड़ी या गुरु या राजा या अतिथि ! माँ के समक्ष ये उसी प्रकार है जिस प्रकार अथाह समुद्र के सामने छोटी सी नदी। हमें अशुभ से निकल कर शुभ में जाना है क्योंकि शुभ को ग्रहण करोंगे तो विचार शुद्ध होंगे । अशुभ को करेंगे तो इसके विपरीत होगा। अतीत को भूल जाम्रो व्यतीत को याद करो। यदि माँ के प्रति कुछ असभ्य या खेद जनक व्यवहार हो गया है तो धो डालो अपने आपको। पश्चाताप करके उसकी अग्नि में तिल-तिल गल कर कुन्दन बन जायो। किये हुए दुष्कार्यो हेतु प्रतिक्रमण कर लो। जैसे सूर्य शाम को अपनी किरणों का जाल समेट लेता है । इससे जीवन विशुद्ध व कर्मों की निर्जरा भी होगी। "किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं असछहणं अतहा विवरीय परुवणाएम"। उपदिष्ट या करणीय कार्य न करने से, माँ के प्रति जो भगवान् के वचन हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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