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________________ १०७ नहीं भगवान् के समकक्ष है । यदि उसके साथ अनुचित व्यवहार आचरण करते हैं पर इस पुस्तक का श्रध्ययन मनन कर सुधर जायेंगे तो आप सही में इंसान है और केवल अपनी गलतियों को समझने तक ही सीमित रखेंगे तो आकार से मानव होते हुए भी हैवान हैं । तथा भविष्य में पुनः गलतियों पर गलतियाँ करते जाएँगे तो शैतान से कम नहीं। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि प्राप सच्चे मानव बनकर भगवान् होने के लिए प्रयत्न के शिखर पर अवश्य चढ़ेंगे । एक बात निश्चित है कि आपकी सेवा सम्यक् होनी चाहिए मिथ्या नहीं । सम्यक सहित मिथ्या रहित। कर्म प्रधान सेवा ही सबसे बड़ी सेवा है। यही वैयावृत्य सच्चा वैयावृत्य है । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि महामुनि गौतम जब भगवान् महावीर से पूछते हैं- " वैयावच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ ? ( भगवन् ! वैयावृत्य (सेवा) से प्राणी क्या लाभ प्राप्त करता है ) ? तब उत्तर में वे कहते हैं- " वैयावच्चेणंतित्थयर नामगोतं कम्मं निबंधइ ।” ( वैयावृत्य से प्राणी तीर्थकर पद को प्राप्त करता है । ) भगवान् महावीर, गौतम बुद्ध, कृष्ण, गुरुनानक देव, शो जरथुस्त, और ईसा मसीह आदि सभी ने कर्म मार्ग से फलासक्ति की प्रबलता हटाने पर प्रबल जोर दिया । लब्ध प्रतिष्ठ संत विनोबा भावे के विचारानुसार "फल तुझे पहले मिल चुका है। अब तो कर्म करना बाकी रह गया है, फिर फल कैसे मांगता है ? " और "अपना रखा हुआ कदम ठीक होगा तो आज या कल उसका फल होगा ही । " ( मोहनदास कर्मचन्द गांधी ) पर शस्य श्यामल पृथ्वी की पवित्र भूमि के वासी जन वासना से ग्रस्त होकर कर्म से तो उदासीन हो बैठे और फल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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