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________________ १०२ कभी खोज-खबर भी नहीं लेता । तुम सब भाई नित्य रसमय भोजन करते हो । जबकि मेरा पुत्र ! वह तो घर-घर पर नीरस भिक्षा माँगता रहता है । तुम सुन्दर पहनते प्रोढ़ते और बिछाते हो, पर वह तो वस्त्र - रहित नग्न रहता है। तुम अकतूल की रुई से भरे हुए विछौनों पर आराम करते हो, चंवर तुम पर बींजे जाते हैं, रसीली गीत ध्वनि सुनते हुए रात्रि व्यतीत करते हो, वह तो ऊँची-नीची जमीन पर डाभ के ऊपर शयन करता है, अथवा ध्यान - मुद्रा में खड़ा रहता है और कैसे-कैसे कष्ट से रात्रि बिताता होगा ! मेरा ऋषभ जितना दुखी है उतना दुखी इस संसार में कोई भी नहीं । यह सम्पूर्ण राज्य - ऋद्धि मेरे पुत्र की है । तुम सब भाइयों ने मिलकर मेरे पुत्र को राज्य से हटा दिया और ये सर्व समृद्धि अपने अधिकार में कर मेरे पुत्र को देश से निकाल दिया है, तुम लोगों ने कभी भी सुध नहीं ली । इत्यादि भरत को निरन्तर उपालम्भ देती हुई मरू देवी माँ का हृदय रो पड़ता है । पुत्र-विरह से मन विह्वल हो जाता है । भरत जैसे-जैसे सान्त्वनात्मक बात कहता तो वैसे-वैसे उसका विरह असह्य हो जाता । उसका पुत्र अपने ही उत्थान बल-वीर्य - पुरुषाकार - पराक्रम के द्वारा स्वयं को ऊर्ध्वाकाश में स्थिर रखने के लिए प्रयत्नशील है— "जावते उप्पन्ने सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ, श्रहिया सेइ ।" ( श्री कल्प सूत्र, ११५ ) पर पुत्र के प्रति प्रेम होने से उसका विरह दिनोंदिन वृद्धि के शिखर पर चढता रहता है, जिनके कारण उनकी प्राँखों की कान्ति फीकी पड़ जाती है | लोक तारक मण्डल - पुतलियाँ (तिल) धूमिल और पलक रूखे हो जाते हैं, चक्षुत्रों पर पटल फिर गये । तब भरत चक्रवर्ती दादी माँ से निवेदन करता है-हे मातेश्वरी ! आप दुख मत करो । प्रापके पुत्र ऋषभदेव प्रत्यन्त प्रसन्न हैं । ' तो अभी मुझे बताओ ! मरुदेवी माँ ने कहा । भरत ने कहा— 'जब वे यहाँ पधारेंगे तब आपको दिखाऊँगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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