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________________ इसलिए मेरी समझ से तो संसारी की सही परिभाषा उसकी सम्मोहित दशा है। अगर इसका रंग एक बार चढ़ गया तो काली कम्बली पर दूसरा रंग चढ़ाना हाथी को थप्पड़ मारकर नीचे बैठाना है। स्वयं को देखो तो सही ! कितने सम्मोहित हुए चले जा रहे हो ! मूर्छा का कोहरा कितना छा रहा है ! बेहोशी की खुमारी कितनी बढ़ती चली जा रही है ! गहरी निद्रा है, गहरी तन्द्रा है। आंखों में नहीं, सारी जिन्दगी में। केवल जिन्दगी में ही नहीं वरन् सारे वातावरण में है । छोटा-सा प्रयोग करके देख लो। आपका पांच वर्ष का बच्चा रो रहा है। कोई पिता नहीं चाहता कि उसका पुत्र रोए, सुबके, आंसुओं से अपने गालो को भिगोए । हर माँ-बाप यही चाहते हैं कि मेरा नन्हा मुन्ना हंसे- खिले, हंसाए - मुस्कुराए । रोते हुए बच्चे को फुसलाने में हो सकता है बच्चा पिता के गाल पर एक चपत भी लगा दे, पर पिता उस चपत को चपत नहीं मानता। वह तो दूने जोर से उसे और फुसलाता है। आप कहते हैं, ले मैं घोड़ा बन जाऊं। आ मेरी पीठ पर बैठ जा । आप बच्चे को अपनी पीठ पर बैठाते हैं और घुटने और हाथों के बल चौपाये की तरह चलने लगते हैं। आप घोड़े की तरह गर्दन भी हिलाते हैं, हिनहिनाने भी लगते हैं। और बेटा पीठ पर बैठा हुआ टिक टिक करता है। यही तो है सम्मोहन, एक गहरी तन्द्रा । पिता भूल जाता है कि पिता की भूमिका क्या है और पुत्र भी भूल जाता है कि पुत्र की भूमिका क्या है। इससे बड़ी हंसी और क्या होगी कि बेटा बाप की पीठ पर बैठा है और बाप को कहता है टिक-टिक-टिक। सम्मोहन की जंजीरें ऐसे ही तो मजबूत होती हैं। इन घटनाओं को नगण्य न समझें। ये हो तो वे नींव की ईंटे हैं, जिन पर संसार का ग्यारह मंजिला मकान खड़ा होता है। ऐसा सम्मोहन इस जन्म में ही नहीं है, अपितु जन्मों-जन्मों से है। संसार की कंटीली झाड़ियों में सम्मोहन के बेर तोड़ते जा रहे हैं और खट्टे-मीठे अनुभव बटोरते चले जा रहे हैं। जीते हो, खटते हो, खून पसीना एक करते हो, किसी न किसी सम्मोहन के प्रभाव से ही सम्मोहन है तभी तो जीवेषणा है। सम्मोहन है तभी तो आदमी अपनी कार पर कपड़ा पोंछकर मुस्कुराता है। सम्मोहन है तभी तो ईंट चूने पत्थर से बने अपने मकान को देखदेख कर फूलते हो। मकान रहने के लिए जरूरी है, कपड़ा पहनने के लिए जरूरी है, खाना पेट के लिए जरूरी है, पर क्या उसके प्रति सम्मोहन रखना जरूरी है? जो लोग सम्मोहित हो जाते हैं उनके लिए मकान रहने का साधन नहीं, अपितु सात पीढ़ी की चिन्ता संसार और समाधि 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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