________________
जिसने मन, वचन और काया के द्वार बंद कर दिए हैं, वही सत्य का पारदी और मेधावी साधक है। उसे इन द्वारों पर अप्रमत्त चौकी करनी होती है। उसकी आंखों की पुतलियां अन्तर्जगत के प्रवेश-द्वार पर टिकी रहती हैं। बहिर्जगत के अतिथि इसी द्वार से प्रवेश करते हैं। अयोग्य और अनचाहे अतिथि द्वार खटखटाते जरूर हैं, किन्तु वह तमाम दस्तकों के उत्तर नहीं देता, मात्र सच्चाई की दस्तक सुनता है। वह उन्हीं लोगों की अगवानी करता है, जिससे उसके अंतर-जगत का सम्मान और गौरव-वर्धन हो।
समाधि भीतर की अलमस्ती है। चेहरे पर दिखाई देने वाली चैतन्य की प्रसन्नता में इसे निहारा जा सकता है। यह किसी स्थान-विशेष, की महलनुमा सेनेय संरचना नहीं है, न ही कहीं का स्थानापति होना है, वरन् अन्तरंग की खुली आंखों में अनोखे आनंद की खमार है। वह हार में भी मुस्कुराहट है, माटी में भी पहल की जमावट है। समाधि शून्य में विराट होने की पहल है! वासना-भरी प्यासी आंखों में शलाई घोंपने से समाधि रोशन नहीं होती, अपितु भीतर के सियासी आसमान की सारी बदलियां और धुंध हटने के बाद किरण बनकर उभरती है।
समाधि तो स्थिति है। वहां वृत्ति कहां! प्रवृत्ति को संभावना से नकारा नहीं जा सकता। वृत्ति का संबंध तो चित्त के साथ है जबकि समाधि का दर्शन चित्त के पर्दे को फाड़ देने के बाद होता है। चेतना का विहार तो चित्त के हर विकल्प के पार है। समाधि में जीने वाला सौ फीसदी अ-चित्त होता है, मगर अचेतन नहीं। चेतना तो वहां हरी-भरी रहती है। चेतना की हर संभावना समाधि की सन्धि से प्रवर्तित होती है। उसे यह स्मरण नहीं करना पड़ता कि मैं कौन हूं। उसके तो सारे प्रश्न डूब जाते हैं। जो होता है, वह मात्र उत्तरों के पदचिह्नों का अनुसरण होता है।
-
-
संसार और समाधि
159
-चन्द्रप्रभ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org