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हमें तो अन्तरजगत् को फूल की तरह खिलाना और महकाना है। मनुष्य का दायित्व तो दूसरों के जीवन में भी सुवास-संचार का है, पर जहां खुद के पांव दलदल में जमे हों, तो विशुद्धि का मार्ग आंखों से ओझल कहलाएगा ही। सीखें हम फूलों से महकना और गुलशन को महकाना।
सौरभ को जीवन-द्वार पर आमंत्रित करने के लिए जरूरी है, चित्त और चित्त-वृत्तियों को पावनता की किसी गंगा में नहला-धुला लिया जाए। हमारे जीवन की हर नीति दूसरों के लिए भी यथार्थ आदर्श बने, तो ही हमारे अस्तित्व की सार्थकता है।
चित्त पर मलिनता आती है संकल्प की कमजोरियों के पिछले दरवाजे से। बर्तन पर धूल जमनी स्वाभाविक है। अगर खुश मिजाज के साथ उसे साफ किया जाए, तो विशुद्धिकरण भी आनन्ददायी होगा। मुंह-लटकाए दिल से चित्त को कभी ईश्वर का सामीप्य नहीं दिलाया जा सकता है। ईश्वर बिम्ब है तो ऐश्वर्य उसकी आभा। क्या राख जमे आइने में किसी का चेहरा झलकेगा। बिम्ब-दर्शन के लिए दर्पण-दर्शन की उज्ज्वलता अनिवार्य है।
ईश्वर उत्सव है, और उत्सव उत्सुकता से मनाया जाना चाहिये। ईश्वर उत्सव रूप है, रस रूप है। रसमयता ही एकाग्रता की आधारशिला है।
एक बात तय है कि चित्त कर्ता नहीं है; चित्त करण है। चित्त ने न तो अपने पर अशद्धि की मैली कथरी ओढी है और न ही वह शद्धि की पेशकश करेगा। आखिर व्यक्ति ने ही उसके पात्र में जहर घोला है और वही उसे निर्विष करने का उत्तरदायी भी है। शुद्धि की पहल वही कर सकता है, जिसने अशुद्धि की भूमिका निभाई। जिन सीढ़ियों से व्यक्ति नीचे फिसला है, उन्हीं से सम्हलकर ऊपर चढ़ना होगा। __चित्त अपने-आपमें एक शक्ति है और यह शक्ति चेतना के ही बदौलत है। यदि हम चित्त को हमारे अन्तःकरण के अर्थ में स्वीकार कर लें तो विशद्धि के दायरे सहज और ऋजु हो जाएंगे। इन्द्रियां अपना काम करती हैं, किन्तु इन्द्रियों के संस्थान का निर्देशक तो चित्त ही है। भीतर से जैसे निर्देश मिलते हैं, इन्द्रियां उनका अमल करती है। इन्द्रियों की रोशनी बाहर से जुड़ी है। आंख, कान, नाक के अपने-अपने क्षितिज हैं। शुद्धि से उनका सीधा संबंध नहीं है। वे तो चाय की प्याली को दुकान से दफ्तर तक पहुंचाने वाली निमित्त मात्र हैं। इसलिए चित्त अगर शुद्ध हो जाए तो इन्द्रियों की शुद्धता आपो-आप
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रम
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