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सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते कि उसने देह से अलग रह कर जीने-की-कुला हासिल कर ली है? शरीर में घाव और वेदना होते हुए भी उसे भूल बैठना भेद-विज्ञान की ही पहल है। रोजमर्रा की जिन्दगी में भी जब देह-व्यथा से अतिरिक्त हो कर जिया जा सकता है, तब क्या ध्यान की बैठक में स्वयं को देह/विचार/मन से ऊपर नहीं माना जा सकता? तुम सम्राट हो, सम्राट बन कर रहो। यदि मन को खटपट और अशान्ति तुम्हारे सिर चढ़ी है तो तुम दर-दर भटकने वाले भिखमंगे हो। • एक आम आदमी मन के कहे में जिये, माना जा सकता है; किन्तु गृह-त्याग कर साधुसन्त बनने वाला व्यक्ति भी यदि शान्त चित्त और मूक मन नहीं रह सकता, तो उसका गृह-त्याग अपने को ठगना ही हुआ। साधु-साध्वियां कहती हैं कि 'हम स्थित-प्रज्ञ नहीं हैं। मंदिर इत्यादि में ध्यान करने बैठते तो हैं, किन्तु मन मंदिर से बाहर भी भटकता रहता है। मेरी समझ से मन की इस चंचलता का कारण संकल्प-शैथिल्य है। आवेश में आकर या किसी के उपदेश मात्र से प्रभावित होकर प्रवज्या लेने वाले समय-की-कछ सीढियों को पार करने के बाद वापस अपने अतीत की ओर आंख मारने लग जाते हैं। फिर संन्यासजीवन स्वयं की वीतरागता में सजग न रह कर मात्र कथित अनुशासन या मर्यादाओं की
औपचारिकताओं/व्यावहारिकताओं में ही रच-बस जाता है। ___घर छोड़ना ही संन्यास है, ऐसा नहीं है। घर छोड़ना, वेश-बदलना या अकेले रहना, इतने मात्र से संन्यास की पूरी परिभाषा नहीं हो जाती है। संन्यासी तो वह है, जिसके ममत्व की मृत्यु हो गयी है। आंखों में ध्यान और समाधि के भाव रमने के बाद तो व्यक्ति के लिए घर भी आश्रम और हिमालय हो जाता है; पर जिनकी आंखों में संसार की खुमारी है उनके लिए आश्रम और हिमालय भी घर और बाजार है। घर में रहने वाला ही गृहस्थ हो, ऐसी बात नहीं है। गृहस्थ तो वह, जिसके मन में घर बसा है, परिवार रचा है, संसार का तूफां है। साधु तो अनगार होता है। अनगार यानी गृह-मुक्त, जिसके मन से बिसर चुके हैं घरबार। मन से किया गया अभिनिष्क्रमण जीवन की अप्रतिम राह है। स्वकेन्द्र-में-स्थिति का उपनाम ही साधना है।
वीतरागता की उपलब्धि के लिए संकल्प सुदृढ़ हों, तो मन-मुक्ति अनिवार्य है। यदि स्वयं में शक्तियों को जागृत और आमंत्रित करना हो, तो मन की एकाग्रता प्राथमिक है। एकाग्र मन से ही किसी शक्ति के प्राण-तत्त्व से सम्पर्क किया जाता है। यदि मनोव्यक्तित्व प्रखर/प्रशस्त हो, तो अपने सप्राण शरीर में अन्य व्यक्तित्व का प्रवेश भी संभव है।
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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