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________________ जनता की भीड़ से अधिक घातक, विचारों की भीड़ है। विचारों की भीड़ में मन का जी लगता भी है, तो घुटता भी है। मनुष्य को जो चिन्ता, तनाव और घुटन विचारों की भीड़ के कारण होती है वह जनता की भीड़ में नहीं होती। जनता की भीड़ से बचने के लिए गुफा में एकान्त-वास हो सकता है; किन्तु विचारों के भीड़-भड़क्के से बचने के लिए दुनिया में न कहीं कोई गुफा है, न एकान्त। जनता की गरद अपने आजू-बाजू रहे, तो कोई नुकसान नहीं है, पर विचारों की भरमार से घुटन-ही-घुटन है। विचारों की घुटन ही मानसिक तनाव को खास धमनी है। स्वास्थ्य लाभ के लिए मन को तनाव-मुक्त करना जरूरी है। स्वास्थ्य की पूर्णता शरीर के साथ-साथ मन की तनाव-मुक्ति से जुड़ी है। तनाव-मुक्त पुरुष स्वस्थ अध्यात्म-पथ का पथिक है। जो मन की परेशानी से जकड़ा हुआ है, वह तन से तन्दुरुस्त और निरोग भले ही हो, पर मानसिक रुप से अपने-आपको हर-हमेशा उखड़ा-उखड़ा-सा/उचटाउचटा-सा महसूस करता है। दिलचस्प बातों में घड़ी-दो-घड़ी वह पद्मासन लगाये लगता है; किन्तु आमतौर पर वह लंगूर छाप जीवन बिताता है। एक ठांव पर उसके पांव टिके रहें, ऐसा मनुष्य को अपने अनुभवों की किताब में पढ़ने में नहीं आता। __ मन व्यक्त भी रहता है और अव्यक्त भी। मन का अव्यक्त रूप ही चित्त है। मन का काम बाहरी जिन्दगी और तौर-तरीकों से जुड़ा रहना है। मन भविष्य के आकाश में ही कूद-फांद करता है, जबकि चित्त अतीत से वर्तमान का साक्षात्कार है। पूर्व स्मृतियों और पूर्व संस्कारों के बीज चित्त की धरती पर ही रहते हैं। पूर्वजन्म के वृत्तान्त भी चित्त की मदद से ही आत्मसात होते हैं। ध्यान की एकाग्रता जितनी गहरी होती चली जाएगी, अन्तर-के-पर्दे पर चित्त के सारे संस्कार चलचित्र की भांति साफ-साफ, दिखाई देने लग जाएंगे। स्वयं के पहले जन्म/जीवन की घटनाओं का दर्शन और कुछ नहीं, मात्र चित्त के संस्कारों का छायांकन है। 'जाति-स्मरण' अतीत के प्रति चित्त का गहराव है; किन्तु भविष्यमा दर्शन चित्त के जरिये नहीं हो सकता। चित्त भविष्य के वर्तमान के दर्शन को अतीत की कड़ी बनाता है। भविष्य मन का परिसर है। मन की एकाग्रता सध जाए, तो व्यक्ति को अपने भविष्य के कुछ संकेत अग्रिम प्राप्त हो सकते हैं। ध्यान का संबंध चित्त की बजाय मानसिक क्रियाओं से ज्यादा है; इसलिए मन की शुद्धि ध्यान के लिए अनिवार्य है। मगर ध्यान की परिपूर्णता चित्त को संस्कार-शून्य करने संसार और समाधि 123 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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