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________________ चलें, मन-के-पार अध्यात्म शरीर, वाणी और मन को प्रतिध्वनियों के पार है। शरीर और वाणी की कर्मठता सीधी और साफ है। बिना पैदे का लोटा तो मन है। घोड़े-की-तरह-खुंदी-करते रहना मन की आदत है। अध्यात्म के साथ मन का कोई विनिमय-संबंध नहीं है। अध्यात्म विकल्प-मुक्ति है और मन विकल्प-युक्ति; अतः मन का अध्यात्म के साथ किसी भी प्रकार लेन-देन भला कैसे हो सकता है? जवन की सारी जीवन्तता और जिंदादिली यथार्थ के साक्षात्कार से जुड़ी है। मन का यथार्थता से भला क्या वास्ता? जब उसके ही व्यक्तित्व की असलियत खतरे में है, तो सोने का सम्यक्तव सही-सही कैसे आंका जा सकता है? __ मन यात्रालु है। परमात्मा को खोजने की बात भी वही कहता है और संसार का स्वाद चखने की प्रेरणा भी वही देता है। उसका काम है, व्यक्ति को शरीर और विचार से हटा कर कभी आराम-कुर्सी पर न बैठने देना। आठों याम भ्रमर-उड़ान भरना यात्रालु मन का स्वभाव है। वह कभी मरघट की यात्रा नहीं करता, उसकी सारी मुसाफिरी माटी-की-काया की जीवन्तता में है। मन तो चलनी है। बुद्ध, या बुद्धिमान कहलाने वाला मनुष्य मन के आगे निरा बुद्ध है। मनुष्य अपने अखिल जीवन का जल मन को चलनी में से निरुद्देश्य बहाता रहता है। आशावाद जीने का आधार अवश्य है, पर उन आशाओं की कब्र कहां बनायी जाएगी. जिनके लिए व्यक्ति ने जीवन की बजाय श्मशान की यात्रा की? जफ़र ने गाया है उमरे दराज मांग कर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गये, दो इंतजार में। प्रवृत्ति जीवन के लिए कर्मठता का अवलम्ब जरूर है; किन्तु निवृत्ति का उपसंहार पढ़ना अपरिहार्य है। निवृत्ति इसलिए कि एक दिन मनुष्य को सब यहीं छोड़छाड़कर खालिस एकाकी जाना पड़ता है। रवानगी का टिकिट मिलने के बाद जलाने वाला पूरा समाज-का-समाज होता है, मगर साथ जलने वाला सारे जहान का एक भी सदस्य नहीं होता। उसकी चिता में रुपये-पैसे भी नहीं, मात्र थोड़ी-सी सूखी लकड़ियां ही जलती हैंसंसार और समाधि 121 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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