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________________ इसीलिए तो रोजाना आइने में स्वयं को निहारते हैं। सुबह उठे, आईना देखा। नहाए, तो आईना देखा। बाल संवारे, तो आईना देखा। और घर से तो जितनी बार निकले, उतनी ही बार आईने में स्वयं को देखा। आईने में देख लिया तो परीक्षा हो गई। कहीं कुछ बेठीक नहीं होना चाहिए। इसलिए आईने को अपना लेते हैं। आईना स्वयं की मन-पसन्दगी के साथ स्वयं को निहारने-परखने का उपाय है। जैसे सोने की परख के लिए कसौटी है वैसे ही खुद की परख के लिए आईना है। आईना तो सभी देखते हैं। बे-ठीक भी देखते हैं और ठीक भी। आंखों वाला ही मात्र आइने में नहीं देखता, काना भी देखता है। कारण हर आदमी अपने को खूबसूरत-से-खूबसूरत पेश करना चाहता है। इस दिखाऊगिरी के मंच पर काले, गोरे, गेहुंएं, राते, काने, लूले, निहत्थे, अमीर, गरीब-सभी शामिल हैं। व्यक्ति स्वयं को संसार के सामने एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में पेश करना चाहता है। व्यक्ति की यह महत्त्वाकांक्षा कोई बहुत बुरी नहीं है। यह बात नहीं है कि केवल सिकन्दर को ही महत्त्वाकांक्षा थी, डायोजनीज को भी थी। फर्कदोनों के सोचने-करने के रास्तों में था। आकांक्षा उड़ान है और महत् अहंकार है। आम आदमी आईने में स्वयं को झांकता है, और जो उससे कुछ विशिष्ट है, वह संसार में स्वयं को झांकता है। जिनकी जिंदादिली उन दोनों से भी ऊंची है, वह स्वयं में स्वयं को झांकता है। व्यक्ति झांक-झांककर ही स्वयं की या संसार की ध्रुवता-क्षणभंगुरता के पाठ पढ़ता है। झांकना संसार की पाठशाला की पहली कक्षा है। झांकने का मतलब है किसी चीज को उत्सुकता के साथ कुछ क्षण के लिए देखना। वैसे झांकने में और देखने में फर्कहै। झांकना बहुत थोड़ी देर में होता है और देखना तो बहुत समय का भी हो सकता है। जब झांकना सोचने के साथ जुड़ जाता है, तो परिणाम मिल जाता है। जो पहले देखता है, झांकता है, बाद में सोचता है, विचारता है, वह सही ज्ञान पा रहा है। उनका अनुभव स्वयं के लिए सही होगा। शास्त्र में न भी मिले उसके विचार, पर वह स्वयं ही जन्माएगा स्वयं का शास्त्र। यों ही तो रचे गये हैं सारे शास्त्र। सामर्थ्य से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। शास्त्र मर्यादा बखानते हैं। मर्यादा हमेशा सार्वजनिक रूप से बनाई जाती है। सामर्थ्य व्यक्तिगत है। वह आत्म-जागरण है। शास्ता का सामर्थ्य ही अनुशासन को मर्यादा में शास्त्र है। संसार और समाधि -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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