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की यदि कोई सबसे बड़ी त्रुटि है, तो वह है फिरकेबाजी की कट्टरता। यह उनका एक समाज-समादृत राग है। सत्य तो यह है कि साम्प्रदायिक राग किसी पारिवारिक राग से कम नहीं होता। इस राग की बढ़ोतरी ने ही उसकी अनन्त विराट् सम्भावनाओं को सीमांकित किया है। इसीलिए तो खतरे में पड़ी है सन्त की शान्त एवं विनम्र प्रवृत्तियां भी।
कई बार ऐसा होता है कि एक फिरके का साधु अगर दूसरे फिरके के साधु से मिल जाये, तो उनको भाषण-अभ्यस्त जुबां को भी लकवा मार जाता है। दोनों एक दूसरे को नमस्कार करने से भी कतराते हैं। परस्पर मिलते ही आदर के भाव कम और सिद्धान्तों की दूरियों के भाव अधिक पुख्ते हो जाते हैं।
जो ऐसे हैं, वे प्रज्ञावान् नहीं हैं। उनके लिए सम्प्रदाय का मूल्य ज्यादा है, मानवता का कम। वास्तव में जो अपनी श्रेष्ठता का जितना दावा करते हैं, वे भीतर से उतने ही हीन हैं। अपनी श्रेष्ठता का हर दावेदार हीनता की ग्रन्थियों से जकड़ा है। श्रेष्ठ वह है, जिसे अपनी श्रेष्ठता का पता भी नहीं है।
साधु का सौन्दर्य तो निरहंकार है। एक साधु द्वारा किसी साधु को नमन न करना एक हीन किस्म का अहंकार है। भला, जब एक गृहस्थी भी किसी अपरिचित को अपना हाथ जोड़ने के लिए तैयार होता है, तो साधु विनम्र होने के लिए प्रस्तुत क्यों नहीं है? क्या वह साधु असाधुता के अंधे गलियारे में नहीं है, जिसके नमस्कार को दीमक लग चुके हैं? ___सच तो यह है कि विनम्रता और सद्भावना की कटौती ने ही फिरकाबाजी बनाम वर्गभेद को बढ़ोतरी दी है। जीवन-मूल्यों पर ध्यान देने वाले साधु फिरकों-से-दूर आत्मरसमयता की खुमारी में ही लवलीन रहते हैं। सच्ची साधुता के प्रकाश में ही जीवन की सही पहचान है।
साधु धार्मिक समाज का तो अगुवा होता ही है। यदि साधु साधुमात्र के प्रति ही नहीं, आम आदमी के प्रति भी नमे नयन रहे, तो विनम्रता एवं भाईचारा कोरा आदर्श न रहकर यथार्थ हो जायेगा। प्रभाव बोध देने से नहीं, बोध को आचरण में प्रकट करने से बढ़ता है।
मुझे पश्चिम बंगाल में ऐसे सन्तों के साथ भी रहने का मौका मिला है, जो गृहस्थ को भी साष्टांग प्रणाम करते हैं। मैने जाना कि कोई भी सन्त, सन्त बाद में, सन्त से पहले मनुष्य है। स्वयं को दूसरों के समान न मानकर बढ़ा-चढ़ा मानना आत्म-मूल्यों की खुल्ली अवहेलना है। संसार और समाधि
-चन्द्रप्रभ
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