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________________ जाए, कि जिस पर तर्क-वितर्क किया जाए, कि जिसे सिद्ध और साबित किया जाए। अध्यात्म तो एक दृष्टि है, एक ऐसी दृष्टि जिसे हम अन्तर्दृष्टि कहेंगे। जिसकी अन्तर्दृष्टि खल गई, बुद्धि तो उसकी चेरी बन जाती है। वह बुद्धि के आगे के द्वारों को खुला हुआ पाता है । आगे जो स्थिति होती है वह बुद्धि की नहीं, बोध और प्रज्ञा की होती है । उसकी स्थिति स्थितप्रज्ञ की, ऋजुप्राज्ञ की होती है। .. धर्म का जन्म जीवन और जगत के सार और असार-दोनों पहलुओं के समझने-बूझने से होता है। शास्त्रों और किताबों के आधार पर धर्म का आचरण ज़रूर चलता रहता है, पर जीवन में धर्म का जन्म नहीं होता । मैंने कहा-आचरण चलता रहता है, पर हकीकत तो यह है कि जब जीवन में धर्म का जन्म ही नहीं हुआ तो उसका आचरण कैसे हो पाएगा। पाप-भीरू लोग धार्मिक किताबों को सुन-पढ़कर उनमें लिखी बातों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन एक छोटा-सा प्रलोभन अथवा एक छोटी-सी विपदा भी उन्हें उनके द्वारा स्वीकार किये गये मार्ग से विचलित कर देती है । वे अपने समझे गये धर्म पर मक्कम नहीं रहते । वे फिसल जाया करते हैं । ऐसे लोगों को फिर-फिर थामने की ज़रूरत पड़ती है, पर अपनी आंतरिक मूर्छा से मुक्त न हो पाने के कारण वे थामे भी नहीं थमते। __धर्म उनके लिए नहीं है जो उसकी मुंडेर पर आ खड़े होते हैं । भला हर राह चलता आदमी हर किसी कुएं का मालिक थोड़े ही हो जाएगा। कुआं उनका नहीं है, जो उसकी मुंडेर पर बैठे हैं, वरन उनका है जिनमें कुएं का पानी पीने की प्यास है । प्रश्न है—आखिर यह प्यास मिलती कहाँ से है ? प्यास भला कोई बाज़ार में बिकती है ! प्यास तो अपने आप उठती है और यह प्यास जगती है तब जब व्यक्ति की अन्तरदृष्टि जीवन और जगत को पढ़ने की कोशिश करती है । जीवन और जगत को पढ़ना धरती की सर्वश्रेष्ठ कृति को पढ़ना है। धरती पर ऐसा कोई भी पहलू नहीं है जिसका कोई सारतत्त्व न हो। ऐसा भी कोई पहलू नहीं है जिसमें निःसारता न छिपी हो । हर वस्तु में सार तत्त्व छिपा है और हर वस्तु में निःसार तत्त्व । सार को सार रूप जानना और असार को असार रूप, यही व्यक्ति की सत्य और सम्यक् दृष्टि है। जागे अन्तर्दृष्टि 1. हमें इस बात से कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए कि जगत को किसने बनाया या ४ ऐसे जिएँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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