SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयं एक विज्ञान है । संबोधि-ध्यान, ध्यान के प्रयोगों का वह संस्कारित, परिष्कृत और वैज्ञानिक स्वरूप है, जिसका प्रयोग मानव जाति के लिए हर हाल में स्वस्तिकर, कल्याणकर और लाभदायी है । हम जरा तलाशें कि क्या हम शरीर से रुग्ण हैं और आरोग्य से वंचित हैं; तनाव और मानसिक अशांति से पीड़ित हैं, क्या हमारी बुद्धि और स्मरण-शक्ति मंद है, क्या हम अपने मनोविकारों से व्यथित हैं, क्या हममें स्वार्थचेतना सघन है; क्या हम आत्मबोध और ईश्वरीय शक्ति से संबद्ध होने के इच्छुक हैं ? यदि ऐसा है, तो बड़े प्रेम और अहोभाव से कहूँगा कि संबोधि- ध्यान के प्रयोग मानव-जाति के लिए वरदान हैं, संजीवनी हैं । संबोधि-ध्यान उनका है, जो इसे जीते हैं । | 'संबोधि' शब्द, शब्द नहीं, साधक का पहला और अंतिम कदम है । संबोधि शब्द सम्यक् बोध का वाचक है, संपूर्ण बोध का सूचक है। बोध जीवन का मूलमंत्र है । बोध को हम सरल भाषा में 'समझ' कहेंगे, अनुभव भी । सम्यक् बोध और सजगता — - दोनों मानों एक-दूसरे के पर्याय हैं । यदि कोई व्यक्ति बोध और प्रज्ञापूर्वक स्वयं के जीवन को देखे और तदनुसार जीने की कोशिश करे, तो वह जीवन की उच्चतर स्थिति को जी सकेगा। जीवन के अमृत रूपान्तरण के लिए जहाँ संबोधि - ध्यान के प्रयोग वरदान साबित होंगे, वहीं स्वयं के नियमित जीवन को ध्यानपूर्वक, सजगता और बोधपूर्वक संपादित करना संबोधि-साधना के ही सहज सहायक मंगल चरण हैं ' संबोधि - ध्यान से आन्तरिक उपचार संबोधि-ध्यान जहाँ हमें शरीर की संवेदनाओं, उसके गुणधर्मों, चित्त के वृत्तिसंस्कारों से शनैः-शनैः उपरत करता चला जाता है, वहीं शरीर में समाहित सूक्ष्म-विशिष्ट शक्ति का जागरण और ऊर्ध्वारोहण करता है, व्यक्ति के उन आंतरिक विशिष्ट केंद्रों को सक्रिय करता है, जो हमारे तन-मन और बुद्धि-तत्त्व को हमारे अनुकूल, स्वस्थ और स्वस्तिकर बनाते हैं । संबोधि - ध्यान जहाँ हमारे शरीर में घर कर चुके असाध्य रोगों को भी अपनी चैतसिक तरंगों के द्वारा काटने की कोशिश करता है, वहीं व्यक्ति को अंततः अनन्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त पराशक्ति / परमशक्ति से संबद्ध करता है, जो कि जीवन का एक उच्च लक्ष्य है । संबोधि-ध्यान का एक बेहतरीन प्रयोग है— साक्षी ध्यान । स्वयं की सजगता ही इस ध्यान-प्रयोग की मूल चाबी है। 'साक्षी' शब्द का सहज अर्थ है - द्रष्टा, मात्र देखने वाला। शरीर, विचार और भाव - दशा - इनकी जो-जैसी स्थिति है, उसे सहज अन्तर्दृष्टिपूर्वक देखना और स्वयं की हर विपरीत आंतरिक विकृति और संवेदना पर जीवन की चिकित्सा ध्यान के द्वारा ९७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy