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कूप ऊपर का पानी लेना न चाहता, अन्तर के झरनों से खुद भर जाता। व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइए,
अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइए। कूप, बाहर से पानी भरा जाएगा, इसकी कभी अभिलाषा नहीं करता। उसके अंदर ही पानी का भराव होता रहता है। इसी तरह ध्यान-साधना की ओर अग्रसर व्यक्ति ही जानता है कि वह परमात्म, दिव्य-चेतन तत्त्व उसके अंदर विराजमान है। उसे बाह्य साधन नहीं, अन्तर का मार्ग चाहिए । 'संबोधि-सूत्र' कहता है
मनोभाव अन्तरदशा, समझ सका है कौन, बोले वह समझे नहीं, जो समझे सो मौन।। सद्गुरु बांटे रोशनी, दूर करे अंधेर, अंधों को आँखें मिलें, अनुभव भरी सवेर।। प्रज्ञा-पुरुष प्रकाश दे, अन्तदृष्टि योग,
समझ सके जिससे स्वयं, मन में कैसा रोग।। मनोभाव अन्तर्दशा समझ सका है कौन? साधक पूछ रहा है कि चेतना ने क्या पाया या उसमें कैसा रूपान्तरण हुआ, यह कोई नहीं समझ सकता। किसमें ऐसा रूपान्तरण हुआ है कि वह अपने अंदर उठने-चलने वाली प्रवृत्तियों को पहचान सके। जब तक भाव-विशुद्धि नहीं होती, चेतना मुक्त नहीं हो सकती। बाहर की सफाई तो तुम कर लोगे, पर विचारों की शुद्धता कैसे ज्ञात हो। अभी मैं आपको संबोधित कर रहा हूँ, लेकिन मेरी अथवा अपनी-अपनी मनोदशा को आप नहीं जान सकते। और मनुष्य की मनोदशा निमित्त पाकर क्षण-प्रतिक्षण बदलती रहती है। और ये मनोदशा ही है कि व्यक्ति चाहे हिमालय की गुफा में चला जाए, तपस्याएँ कर ले, लेकिन कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। उसकी विचार-तरंगें उत्तुंग शिखर से क्षण भर में जमीन पर गिरा देती हैं।
एक बिल्ली अपने बच्चे को और चूहे को दांतों के मध्य दबाकर दौड़ती है, लेकिन क्या दोनों समय एक जैसी मनोदशा होती है? नहीं, एक की तो वह रक्षा करती है, दूसरे को मारने के भाव होते हैं। स्थितियाँ एक जैसी हैं, लेकिन मनोभाव एकदम विपरीत। हम स्वयं की ओर भी देखें। अभी तो हम प्रेम से भरे हुए हैं, लेकिन निमित्त बदलते ही तुरन्त क्रोध में कैसे भर जाते हैं। ये अनुभव तो आपको भी हुए हैं, लेकिन इनमें बदलाव लाने का कभी प्रयास
66 : : महागुहा की चेतना
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