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________________ ने तुम्हें घेर रखा है। और इसके लिए आवश्यकता है, श्रद्धानिष्ठ भक्ति की; प्रभुता के प्रति, अपने अन्तरहृदय में विराजमान परम ज्योतिर्मयता के प्रति समर्पण की भक्ति तो वह शृंगार है, जो मन का कायाकल्प कर सकता है और फिर गीत केवल कंठ ही नहीं गाएंगे, रोम-रोम से फूट पड़ेगी रसधार। फिर तुम्हें कुछ कहना नहीं पड़ेगा, तुम्हारा जीवन बोलेगा। सामान्य व्यक्ति वाणी से बोलते हैं, पर साधकों का तो जीवन ही बोलता है। तुम मन से जुड़े हो, बुद्धि से जुड़े हो, हृदय तक पहुँच नहीं बन पाई। जब तक हृदयवान न बन जाओगे, तब तक समग्रता को उपलब्ध कर पाना कहाँ सम्भव है। फिर अगर ध्यान में बैठ जाओगे, तो भी अतिमनस् साधना की कामना नहीं रहेगी, वरन् भौतिक साधनों से जुड़ा मन भौतिकता की ही कामना करेगा, वही उसे अच्छा लगेगा। मुझे याद है, एक मालिन और मछुआरन में गहरी दोस्ती थी। दोनों ही बाजार में एक साथ दुकान लगाकर बैठतीं। मालिन फूल बेचती और मछुआरन मछलियाँ । मालिन का घर तो बाजार के पास ही था, पर मछुआरन रोज तीन मील से चलकर आती। एक दिन बाजार से वापस निकलने में विलम्ब हो गया। मालिन ने मछुआरन से कहा कि आज ज्यादा विलम्ब हो गया, चलो मेरे घर सो जाओ। रात होती देख मछुआरन ने भी हाँ भर दी। मालिन ने मछुआरन को भोजन करवाया। सोने की उचित व्यवस्था की। मछलियों की जो टोकरी थी, उसे बाहर रख दिया। उसकी कुटिया की वाटिका में जितने खुशबूदार फूलों के जो गमले थे, मछुआरन की शैया के पास रख दिये, यह सोचकर कि मछलियों की गंध में तो रोज सोती है। क्यों नहीं, आज इसे फूलों की खुशबू में नींद का आनन्द दिलाया जाए। मालिन तो सो गई, पर मछुआरन को नींद न आई। रात आधी बीत गयी। फूलों की खुशबू उसकी नाक को इतनी अटपटी लगे कि आँख भी बंद न हो। उसने मालिन को जगाया और कहा कि मुझे नींद नहीं आ रही, मेरी मछलियों की टोकरी कहाँ है। मालिन ने कहा, अरे ! मैंने तो उसे घर के बाहर रखा है। मैंने सोचा मछलियों की दुर्गन्ध में तो तुम रोज सोती हो, आज फूलों की खुशबू में तुम्हें सुलाऊं। उसने कहा, मैं नहीं सो पाऊंगी फूलों की खुशबू में। मेरे सिरहाने जब तक मछलियों की टोकरी न रखोगी, मुझे नींद न आएगी। आखिर मालिन मछलियों की टोकरी भीतर लेकर आई। कुछ पानी के छींटे उस पर दिये गए। कुछ उसकी गंध फैली, तो मछुआरन ठीक से सो सकी। मनुष्य के मन की यही स्थिति है। मछलियों की गंध में जिसे जीने की आदत पड़ गई है, भला वह फूलों की खुशबू कैसे पसन्द करेगा। पावनता दो काया मुरली बाँस की : : 47 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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