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दांत बाहर आ जाएंगे। तब वह तीसरा जो वहाँ खड़ा था बोला, बत्तीस की बात तो समझ में आती है, लेकिन चौसठ, वह कैसे? जबकि दांत ही बत्तीस होते हैं। दूसरा बोला मुझे मालूम था तू बीच में जरूर बोलेगा, इसलिए चौसठ।
दूसरों के बीच में टांग अड़ाने का यही हश्र होता है। हमें दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा नहीं पहुँचानी है। हरेक को स्वतंत्र जीवन जीने का हक है। तुम किसी गुरु के पास जाओ तो यह निर्णय करके जाओ कि ध्यान करने के लिए जा रहे हो या ध्यान रखने के लिए जा रहे हो। ध्यान रखने के लिए गए तो दोषों का पुलिंदा साथ लेकर आओगे और ध्यान करने के लिए गए तो जीवन की धारा रूपान्तरित करके वापस आओगे। हाँ, अगर तुमने चश्मा ही काला लगा रखा हो तो फिर तो सफेद दीवार भी काली ही नजर आएगी। इसलिए औरों पर दृष्टि डालने की बजाय अगर हो सके तो अपनी ओर आँखें घुमाओ। अपने जीवन के रूपान्तरण का प्रयास करो। अपने ही दोषों को देखो, अपनी ही वृत्तियों को पहचानो। अगर इनसे ही मुक्त हो गए तो पर्याप्त है। कहाँ दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप करने जा रहे हो।
जीवन में जहाँ सत्य हैं उन्हें स्वीकार करें, उनका अनुमोदन करें और परकीय दोषों की ओर दृष्टि न डालने का प्रयास करें। 'जीवन चलना बांस पे, छूट न जाए होश-जीवन में गहन सजगता की जरूरत है। देखते हैं न, महिलाएँ पनघट पर पानी भरने जाती हैं तो घर पर बच्चों को छोड़ जाती हैं। कुएं पर पहुँच कर पानी भरती हैं। गगरियाँ सिर पर रख लेती हैं। लौटते हुए बातें भी करती हैं, हंसी-मजाक भी कर लेती हैं, ऊंचे-नीचे रास्तों से भी गुजरती हैं, लेकिन मजाल है गगरी में से जल छलक जाए, क्यों होता है ऐसा? क्योंकि वे बाह्य रूप से चाहे जो करें उनका अन्तस् मनस तो गगरी पर ही होता है। पूरी सजगता के साथ गगरी पर ध्यान रहता है। गायें जंगल में घास चरने जाती हैं। बछड़े मालिक के घर ही रह जाते हैं। गाय घास चरती है, पानी पीती है, झुंड में भी रहती है, लेकिन मन तो बछड़े में ही रहता है। एक नृत्यकार दो बांसों के मध्य बंधी डोरी पर नृत्य करता है। उसके शरीर के प्रत्येक अंग का संचालन हो रहा है, लेकिन उसका ध्यान डोरी पर है, वह पूरी एकाग्रता से डोरी का ध्यान रखता है, कहीं वह न टूट जाए। ज्ञानी कहते हैं तुम अपनी जिंदगी को ऐसी दिशा दो। जीवन तो बांस पर चलने के समान है, कहीं भूल से भी होश न खो बैठना। अगर होश छिटक गया तो समझो सब कुछ छिटक गया। महावीर तो कहते हैं तुम होशपूर्वक चलो, होशपूर्वक खाओ, उठो-बैठो,
साक्षी हों वर्तमान के : : 109
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