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________________ यज्ञ होगा; एक महान् दान, एक महान् तप होगा । भगवान करे आप सबके जीवन में ऐसे पुण्य-पल, ऐसी पावन - वेला सृजित हो, उपलब्ध हो । भगवान ने पहला चरण कहा यज्ञ और दूसरा चरण है दान । दान के मायने हैं- देना, लुटाना और उसी में आनन्द का अनुभव करना । अगर दान दिया और देने के बाद गिला हुआ, तो दान दिया ही क्यों ? लेकिन लोग करें भी क्या, आजकल सात्विक दान कम होता है और राजसी व तामसी दान ही ज्यादा होता है । बेमन का दान सात्विक दान नहीं होता, यह दान राजसी दान हुआ। अगर आप अपनी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए लाखों रुपये स्वाहा कर देते हैं, तो यह राजसी और तामसी दान हुआ, सात्विक दान तो वह है, जिसे देने में व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझे । कर्त्तव्य-भाव से, बिना किसी पर उपकार करने की भावना से अगर किसी को कुछ देते हो, तो यह सात्विक दान कहलायेगा । 1 व्यक्ति धन का बेशुमार संग्रह करता है । धन जमा करने के लिए नहीं है, उपयोग के लिए है, उसका समुचित उपयोग होना चाहिये । पैसा जीवन और जीवन से जुड़े पहलुओं को पूरा करने के लिए होता है । पैसा जीवन का सत्य नहीं है, गंतव्य नहीं है । यह तो जीवन की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए महज़ एक साधन है । साधन को साधन जितना ही महत्त्व दो । जब साधन को साध्य बना बैठोगे, तो प्रतिकूलताएं पनपेंगी । अगर धन को धर्म समझ लिया, तो डूब जाओगे । तब कंजूस प्रकृति के आदमी में और एक अमीर आदमी में फ़र्क़ ही नहीं रहेगा। दोनों ही धन बटोरेंगे, लेकिन उपयोग कुछ भी नहीं होगा । बाकी के लोग तो बोल जायेंगे मुँह से, मगर जब देने की बात आयेगी, तो हाथ कांपेंगे, कदम पीछे हट जायेंगे । दान की राशि बोलने के बाद उसे अपने घर में रखना, धर्मादे को घर में रखना है । कुछ दो, तो श्रद्धा से दो, प्यार से दो । देते समय आनन्द की रसानुभूति करो। ज़रा सोचो कि मैंने सारे संसार का त्याग कर दिया; अपने घर-परिवार सबको छोड़ आया मैं, तो क्या आप मानवता की सेवा के लिए अपनी आजीविका में से दो-चार अंश भी नहीं निकाल सकते ? यदि आप ऐसा करते हो, तो आप कल्पना भी नहीं कर पाओगे कि आपने अपने जीवन में संन्यास के महा आनन्द को, मुक्ति के महा मार्ग को जीया है। दो अंश देते हुए भी अगर हाथ कांपते हैं, 208 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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