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________________ है । इसके आंसू, आंसू नहीं थे, वरन् पावनता की वह जलधार थी, जिसमें इसने अपने आपको भी धोया-प्रक्षालित किया और मेरे पाँवों को भी निर्मल किया । इसका होंठों से मेरे पांवों को चूमना, चूमना नहीं था, वरन् यह अपने जीवन का समर्पण था अगर श्रद्धा अपने ही अन्तःकरण में ईज़ाद हो जाये, तो मैं बहुत प्यार से कहूंगा कि श्रद्धा से बढ़कर कोई मार्ग नहीं है । धर्म और अध्यात्म की ‘क्यू' में जितनी भी अच्छी से अच्छी बातें हैं, उनमें पहला 'नंबर' श्रद्धा का ही है। श्रद्धा के बाद ही सारी चीजें हैं। भगवान के मंदिर ये, मगर श्रद्धा न थी, तो मंदिर जाने या घर पर रहने में कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा । परमात्मा की श्रद्धा को लेकर यदि मनुष्य बाज़ार में चला जाये, तो वह बाज़ार भी मनुष्य के लिए मंदिर साबित हो सकता है । सब कुछ आपकी श्रद्धा पर निर्भर है। मुझे भी अगर सुनो, तो दिमाग़ से मत सुनना । अपने दिमाग़ को वहीं पर उतार आना, जहाँ पर आपने अपने जूते खोले हैं, क्योंकि गीता का दिमाग़ से कोई संबंध नहीं है, तर्क से कोई ताल्लुक नहीं है। गीता हृदय का संबंध रखती है, हृदय के द्वार - दरवाज़ों पर दस्तक देती है। गीता की रश्मियों का संबंध एकमात्र हृदय से है, उस हृदय से जिसमें श्रद्धा निवास करती है, जिसमें मनुष्य का प्रेम रहता है, जो शांति और आनंद का आधार और अनुष्ठान है। श्रद्धा से अगर सुनो, तो गीता आपके अंतःकरण में उतरेगी, जीवन का रूपान्तरण करेगी । श्रद्धा चाहिये, और जब मैं कह रहा हूँ कि श्रद्धा चाहिये, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि एक हिन्दू की श्रद्धा चाहिये या जैन अथवा इस्लाम की श्रद्धा चाहिये । श्रद्धा कोई जैन, हिन्दू अथवा इस्लाम नहीं होती । श्रद्धा, श्रद्धा होती है । जैसे किसी आदमी को मलेरिया हो जाये, तो मलेरिया एक रोग है । वह हिन्दू, जैन या मुस्लिम नहीं है । इसी तरह कुनैन एक दवा है, वह भी हिन्दू, जैन या मुस्लिम नहीं है । श्रद्धा जीवन की ऐसी ही एक दवा है, हर धार्मिक व्यक्ति के लिए, हर आस्तिक आदमी के लिए । श्रद्धा हर व्यक्ति के लिए एक मार्ग है, एक सोपान है । 1 कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ करो । वे यज्ञ आयोजित करो जिससे यह मानवता प्रबुद्ध हो सके, अपने पैरों पर खड़ी हो सके। सेवा के वे यज्ञ आयोजित करो कि जिसे पाकर मानवता प्रमुदित और आह्लादित हो सके और अपने हृदय के अनंत आशीष आपको प्रदान कर सके। कुछ ऐसे यज्ञों का इंतज़ाम होना चाहिये, ऐसे शिविर लगने चाहिये जिससे हर आदमी प्रबुद्ध हो सके, ज्ञानवान हो सके। अगर श्रद्धा स्वयं एक मार्ग | 205 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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