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________________ हमारा आज है, वैसा ही आने वाला कल होगा। अगर आज का जीवन आसुरी प्रवृत्तियों से गुजर रहा है, तो कोई संभावना नहीं है कि मरने के बाद देवत्व हमारे जीवन में घटित हो जाये । हाँ, परिवार वाले जरूर लिख देंगे कि उनके दादाजी स्वर्गीय हुए, भले ही वे नरक में ही क्यों न गये हों । तस्वीर पर यही तो लिखना है-स्वर्गीय श्रीमान अमुक चंद जी । क्या मनुष्य की तस्वीर पर, उसकी प्रतिछवि पर स्वर्गीय लिख देने भर से वह स्वर्ग में चला जायेगा? हमारी प्रकृति तो आसुरी प्रकृति है । यह तो घृणा और द्वेष, निंदा और वैमनस्य, आक्रोश और अपराध से भरी हुई है। इन आसुरी प्रवृत्तियों के रहते व्यक्ति देवत्व को प्राप्त करे, यह संभावना तो नहीं लगती। हम स्वर्ग को उपलब्ध कर पाएं, इसके लिए कोई चालबाजी या कोई वणिक-वृत्ति कारगर नहीं होने वाली । वहाँ तो दूध का दूध और पानी का पानी ही होगा । वहाँ तो केवल मोती ही चुने जाते हैं, मोती ही बीने जाते हैं, बाकी के दाने तो कौओं के लिए छोड़ दिये जाते हैं और मनुष्य को नरकवासी होना पड़ता है। उस नरक को तो मरने के बाद भोगोगे, लेकिन पहले अपने आज के जीवन पर भी नज़र डाल लो कि कहीं यह तो नरक बना हुआ नहीं है । अच्छा होगा, एक बार हम नरक पर नजर डालें, भीतर में पल रहे, जमा हुए नरक पर । स्वर्ग की हम चर्चा करते हैं, स्वर्ग के नक्शे बनाते हैं, स्वर्ग की आराधना करते हैं, पर स्वर्ग कितना हमारा सहचर बना हुआ है ? जीवन कितना जन्नत है, इस बात पर गौर करो । देवत्व के गुण, दैवीय सम्पदा हमारे पास कितनी है, यह बात गौरतलब है । क्या हमारे भीतर धैर्य है? क्या पिता के दो कटु शब्द सुनने की सहिष्णुता है हममें ? राह चलते अगर कोई घायल पशु-पक्षी मिल जाये, तो उसको घर तक लाकर ज़रूरी इलाज़ कर पाने की भावना है अंतर्मन में ? क्या हमारे अपने भीतर वह सेवा का भाव है कि हमारी अपनी माँ या सास रुग्ण हो जाये, तो उसका मल-मूत्र उठाने को हम तैयार हैं? देवत्व कोई उधार नहीं मिलता या आसमान से नहीं टपकता। उसका जन्म तो मनुष्य के अपने अंतःकरण में होता है। सद्विचारों और सद्गुणों से अपने ही अन्तःकरण में देवत्व का प्रादुर्भाव करना पड़ता है। कृष्ण हमें आसुरी प्रवृत्तियों से बचाकर देवत्व की तरफ ले जाना चाहते हैं । कृष्ण कहते हैं कि तुम अपने देवत्व की तरफ बढ़ोगे, बस आसुरी प्रवृत्तियों से अपने आपको बचा लो, तब जीवन स्वतः आगे की तरफ प्रवृत्त होगा। चेतना देवत्व की दिशा में दो कदम | 191 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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