________________
देवत्व की दिशा में दो कदम
आज हमारी परिचर्चा गीता के सोलहवें अध्याय पर केन्द्रित रहेगी। गीता की महायात्रा में जैसे-जैसे हम कदम-ब-कदम बढ़ते चले जा रहे हैं, हम अपनी यात्रा में, इसके पड़ावों में, नये-नये अनुभवों से रू-ब-रू हो रहे हैं, नया रस, नया अनुभव मिलता चला जा रहा है । हर युगांतरकारी परिवर्तन के बावजूद गीता के संदेश सम-सामयिक हैं और भविष्य में भी इनकी उपादेयता बरकरार रहेगी। जैसे-जैसे हम गीता की अनंत गहराइयों को स्पर्श कर रहे हैं, उज्ज्वलतम चमकते हुए रोशनी से सराबोर मोती हमारे हाथ लगते चले जा रहे हैं।
गीता की सुगंध अपने आप में अनुपम है । यह खुशबू हर गुल से जुदा, हर फूल से अलग है । मैंने फूलों को खिलते हुए देखा है, दुर्गन्ध को सुगन्ध में परिणत पाया है। ऐसा ही परिवर्तन आपके जीवन में भी घटित हो सकता है, यदि आप गीता को अपने जीवन में स्वीकार कर पायें; गीता आपके जीवन का गीत बन पाये । तब जिन शब्दों से मनुष्य गालियाँ निकालता है, वे शब्द बदलाव की पुरवाई से गुजरकर जीवन के गीत बन सकते हैं। जिन गालियों को सुनाकर व्यक्ति क्रोधित और उद्वेलित होता है, वे ही हमारे लिए मन्दिर की सीढ़ियाँ बन सकती हैं।
188 | जागो मेरे पार्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org