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उठना-बैठना, सोना, कमाना, बतलाना सभी इतने सौम्य और संयमित हों कि जीवन स्वयं एक तपस्या बन जाये और अन्तःकरण को, उसमें चल रही अनर्गलता से छुटकारा मिले।
दूसरा सूत्र यह दूंगा कि प्रतिक्रिया और प्रतिशोध से बचो । प्रतिक्रिया मानसिक हिंसा है, मानसिक पीड़ा और घुटन है । क्रिया, क्रिया रहे, वह प्रतिक्रिया न बने । किसी ने कहा, वह आपकी आलोचना कर रहा है। अब यहां क्रिया भी हो सकती है और प्रतिक्रिया भी । क्रिया यह कि कोई बुराई कर रहा है तो इसमें बरा क्या है । बरा था तभी तो साधु बना और साधु बनकर अपनी बुराइयों के तमस को बाहर फेंक रहा हूं । अगर आत्मा साधु ही होती, तो साधुत्व का परिवेश भी स्वीकार करने की जरूरत कहाँ रहती । अच्छा ही है अपनी जिस बुराई को मैं न पहचान पाया, वह उसने मुझे बतला दी । प्रतिक्रिया यह होगी कि वह कौन-सा दूध का धुला है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उसमें क्या-क्या कमी है, कितनी बार जेल की हवा खा आया है।
प्रतिक्रियाएँ प्रगाढ़ हो जायें तो प्रतिशोध की भावना प्रगाढ़ हो जाती है । प्रतिशोध वैर और हिंसा है, जो कि अन्तःकरण की अशुद्धि है, भीतर उल्टा कचरा बटोरते हैं। इसलिए प्रतिक्रिया नहीं, क्रिया हो, और प्रतिशोध नहीं, सद्भावना
हो।
तीसरा सूत्र यह दूंगा कि जब भीतर का उद्वेलन या भीतर की कल्मषता प्रकट होने लगे, तो अभिव्यक्ति के समय अपना विवेक कायम रखो । अगर भीतर में क्रोध की तरंग पैदा हुई है, तो इस क्रोध को प्रकट करने में अपना विवेक लगाओ; अगर अहंकार या विकार का भाव बन रहा है, वो प्रकट हो, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति में विवेक रहे । अगर किसी स्त्री को देखकर मन चंचल हुआ, किसी चित्र को देखकर मन व्याकुल हुआ, तो अपनी व्याकुलता की अभिव्यक्ति में विवेक रखो । अच्छा होगा मनुष्य सर्वत्र मां के भाव को स्थापित करे, ताकि उसका मन इतना अधिक चंचल न हो । बोलने, खाने-पीने, सोने-उठने सभी में विवेक होना चाहिये। विवेकपूर्वक अगर क्रोध को भी प्रकट करो, तो कोई हानि नहीं और अविवेक से प्रेम को भी प्रकट किया जाये, तो उससे भी नुकसान ही होगा।
चौथी बात यह कहूंगा कि हमारे अंतःकरण में जो दुर्गुण व्याप्त हैं, उनकी
186 | जागो मेरे पार्थ
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