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कि हम सचमुच आज़ाद हुए हैं । हम तो अभी भी, अपने ही कारणों से परतंत्र और पराधीन पड़े हैं । हमें किसी और ने आकर परतंत्र या पराधीन नहीं किया है, वरन् हमारी अपनी ही वृत्तियों, हमारे अपने ही दुर्गुणों ने हमें पराधीन कर रखा है । 'जे तें जितियारे, ते मुझ जितियारे ।' हे प्रभु, जिन अवगुणों को तुमने जीता था, अफसोस आज उन्हीं अवगुणों ने आकर मुझे घेर लिया है। ..हमारे अपने ही काम ने, क्रोध ने, आक्रोश ने, वैर-विरोध ने, राग-द्वेष की ग्रंथियों ने हमें जीत डाला है। हमारे पाँवों में बेड़ियाँ हैं; हाथों में हथकड़ियाँ हैं
और गले में फाँसी का फंदा लटक रहा है। आदमी को न तो ये जंजीरें दिखाई पड़ रही हैं, न बेड़ियाँ दिखाई दे रही हैं और न फाँसी का फंदा ही नज़र आ रहा है। गीता का आज का अध्याय, जिस पर हम अपनी परिचर्चा केन्द्रित करेंगे, ऐसे ही पहलुओं को स्पष्ट कर रहा है। यह बताएगा कि तुम्हारे बंधन क्या हैं ? किन कारणों से तुम बंधे हुए हो? ऐसे कौन-से मार्ग हो सकते हैं जिनसे तुम अपनी मुक्ति का द्वार खोल सकते हो?
गीता का चौदहवाँ अध्याय है गुणत्रय विभाग योग । त्रिगुण में सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण की बातें हैं । गीता कहती है कि परमात्मा सृष्टि का निर्माण और संचालन करता है। यह बात अगर स्वीकार करते हैं, तो हमें यह सोचना चाहिये कि परमात्मा किसके आधार पर यह संचालित करेगा, क्योंकि सब लोगों के साथ अलग-अलग परिणाम देखने को मिलते हैं । कोई अमीर है, तो कोई गरीब; कोई ठंडे मिज़ाज का है, तो कोई बदमिज़ाज, कोई ब्रह्मचारी है, तो कोई व्यभिचारी; कोई करोड़पति है. तो कोई रोड़पति, कोई शांत और सौम्य है, तो कोई वीभत्स । यह फ़र्क क्यों है ? हम पुरुष या स्त्री के रूप में क्यों पैदा होते हैं ? हम बार-बार क्यों जन्म लेते हैं?
प्रकृति के माध्यम से जीवन का निर्माण, सृष्टि का अभ्युदय और संचालन होता है । दो तत्त्वों का संयोग तीसरे नये तत्त्व को जन्म देता है । जब तक दो तत्त्व आपस में न मिलेंगे, तीसरा तत्त्व कभी पैदा न होगा। यह पानी भी तो दो तत्त्वों-आक्सीजन और हाइड्रोजन का संयोग है । ऐसे ही जीवन बनता है । पुरुष
और प्रकृति के संयोग से, पुरुष और स्त्री के संयोग से, नर और मादा के संयोग से या बीज और मिट्टी के संयोग से । जब तक संयोग न हो प्रकृति भी स्वतंत्र, पुरुष भी स्वतंत्र । जैसे ही संयोग हुआ, कोई तीसरी प्रतिमा, कोई तीसरा आकार
166 | जागो मेरे पार्थ
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